शनिवार, 11 जून 2016

आत्ममुग्ध हम

हम सभी आत्ममुग्ध रहते हैं। अपने बारे में बात करना चाहते हैं, अपनी प्रशंसा सुनना चाहते हैं। जरा-सी आलोचना को हम सहन नहीं कर पाते। उस समय हमारा मन करता है कि इस आलोचक को काले पानी भेज दें अथवा उसका वो हाल करें कि जिन्दगी भर याद रखे, उसे भूल न पाए। सोचना अलग बात होती है किन्तु उस पर आचरण करना अलग बात।
          महात्मा बुद्ध ने इसीलिए कभी कहा था- 'आप पूरे ब्रह्माण्ड में कहीं भी ऐसा व्यक्ति खोज लें जो आपको आपसे ज्यादा प्यार करता हो, आप पाएँगे कि जितना प्यार आप खुद से कर सकते हैं उतना कोई आपसे नहीं कर सकता।'
          जब हम खुश होते हैं तब गहराई से यदि विचार करते हुए अपने अंतस् को टटोलें तो पता चलेगा कि जिस वस्तु ने हमें परेशान किया हुआ था, वह हमें खुशियाँ दे रही है। इसके विपरीत जब हम दुखी होते हैं तब मनन करने पर पता चलता है कि वस्तुत: जिसके लिए हम व्यथित हो रहे थे, वही हमारी प्रसन्नता का कारण है।
          अपनी खुशियों को ग्रहण लगाना उचित नहीं है। यदि हम सभी अपने भीतर विद्यमान क्रोध को हवा दते रहेंगे तो अपने पैर कुल्हाड़ी मारने का काम करेंगे। इस क्रोध से बड़ा मनुष्य का कोई और शत्रु नहीं है। वह उसके विवेक पर प्रहार करके उसे कुण्ठित करता है। क्रोध करना ऐसा है मानो एक गर्म कोयले को उठाकर किसी दूसरे पर फैंक दिया गया हो। दूसरे को तो वह बाद में जलाएगा लेकिन पहले तो वह आपना ही हाथ जलाएगा।
          क्रोधी व्यक्ति को कोई दण्ड दे या न दे परन्तु उसका क्रोध स्वयं ही उसे सबसे अलग करके दंड दे देगा। अपनी इज्जत अपने हाथ होती है, इसीलिए अनावश्यक क्रोध करने वाले से लोग दूरी बनाकर रखते हैं। उनका कोई भरोसा नहीं होता कि वे कब अनर्गल प्रलाप करते हुए सामने वाले का अपमान करने लगें।
       जब तक मनुष्य जीवित है, वह साँस ले रहा है तब तक कदम-कदम पर उसे टकराव मिलता रहेगा, विरोध का सामना करना पड़ेगा। इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि मनुष्य अपना आपा खोने लगे। ऐसा करके वह अपने शत्रुओं की संख्या में वृद्धि करता है। पीठ पीछे जो बोलते है उन्हें बोलने दो।
        जिस प्रकार सूर्य और चन्द्रमा छिपाए नहीं छिप सकते उसी तरह सत्य भी बहुत समय तक छिपाकर नहीं रख सकते। जब सच्चाई सामने आती है तो वे झूठे बगलें झाँकने लगते हैं। यदि मनुष्य सही रास्ते पर चल रहा है तो लोगों से देर-सवेर सम्मान और लगाव मिलता रहता है। यही उसकी पूँजी है।
         इस क्रोध से मुक्ति पाना बहुत सरल है। इन्सान अपने हृदय में यदि शान्त रहने का अभ्यास कर ले तो इसे वश में किया जा सकता है अन्यथा दुर्वासा ऋषि की तरह कभी सम्मान नहीं पाता। शांति का वास हमार अपने हृदय में होता है, उसे तीर्थों, जंगलों या तथाकथित गुरुओं के पास जाकर तलाशने का कोई लाभ नहीं होता। इसे बाहर ढूँढने से केवल धन और समय की बरबादी होती है।
         हमारे अतिरिक्त हमें कोई और इस क्रोध रूपी शत्रु से नहीं बचा सकता। हमें अपने सही रास्ते का चुनाव करके स्वयं ही उस पर चलना पड़ता है। जबरदस्ती हाथ पकड़कर कोई नहीं चला सकता।
         जो बीत गया उसके बारे में अधिक नहीं सोचना चाहिए और न ही पिष्टपेषण करते हुए अनावश्यक क्रोध करना चाहिए। भविष्य के गर्भ मे क्या है, उसके बारे में सोचते हुए सुनहरे सपने मत देखो। यदि वे सपने न पूरे हो सके तो फिर अपनी क्षमताओं पर क्रोध आएगा। केवल वर्तमान हमारा अपना है उसी पर ध्यान केंद्रित करके बढ़ते चलो।
           आत्यकेन्द्रित बनकर सदा अपनी कमियों का सुधार करना चाहिए। अपने दोषों को इंगित करने वालों पर क्रोध न करके उन मिलने वाले प्रहारों से स्वयं को बचाते हुए जीवन की कठिन डगर पर बढ़ते चलना बुद्धिमानी है।
चन्द्र प्रभा सूद
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