रविवार, 12 जून 2016

अच्छे और सच्चे मित्र

अच्छे और सच्चे मित्र मनुष्य को बड़े ही भाग्य से मिलते हैं। मित्र का चुनाव करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए। मित्र वही होता है जो अपने मित्र की गलतियों पर पर्दा न डालकर उसकी कमियों को दूर करने का यत्न करे। उसे सही और गलत की पहचान कराए। यदि कहीं गलती से उसका मित्र कुमार्गगामी बनने लगे तो उसे शह देने के स्थान पर उसे सन्मार्ग की ओर उन्मुख करने की सामर्थ्य रखे।
          ऐसे मित्र के साथ सदा यत्नपूर्वक सम्बन्ध बनाए रखना चाहिए। मनीषी मानते हैं कि मित्र वही होता है जो किसी भी परिस्थिति में साथ नहीं छोड़ता। आधे रास्ते में छोड़कर जाने वाला कदापि मित्र नहीं हो सकता, वह स्वार्थी होता है। अपने मित्र पर मनुष्य को सदा पूर्ण विश्वास होना चाहिए। जहाँ मित्रता हो वहाँ कभी संदेह नहीं करना चाहिए।   
          एक बादशाह को फकीर से बहुत प्रेम हो गया। वह रात को भी बादशाह के कमरे में सोता। कोई भी काम होता तो दोनों एक साथ करते। एक दिन दोनों शिकार खेलने के लिएगए और रास्ता भटक गए। भूखे-प्यासे दोनों एक पेड़ के नीचे पहुँचे। पेड़ पर केवल एक ही फल लगा हुआ था।
          बादशाह ने घोड़े पर चढ़कर फल को तोड़ा और उसके छह टुकड़े किए। अपनी आदत के अनुसार पहला टुकड़ा उसने फकीर को दिया। फकीर ने टुकड़ा खाया और बोला कि बहुत स्वादिष्ट है, उसने वैसा फल कभी नहीं खाया। फिर उसने एक टुकड़ा और माँगा और खा लिया। इस प्रकार फकीर ने राजा से फल के पाँच टुकड़े लेकर खा लिए।
         जब फकीर ने आखिरी टुकड़ा देने का आग्रह किया तो झल्लाकर बादशाह ने कहा कि आखिर वह भी तो भूखा है। मैं तुमसे प्यार करता हूँ पर तुम नहीं। सम्राट ने उस कड़वे फल का टुकड़ा ज्योंहि मुँह में रखा त्योंहि उसे थूक दिया।
         राजा ने फकीर से कड़वा फल खाने का कारण पूछा। फकीर ने बड़ी सहजता से उत्तर दिया कि जिन हाथों से इतने समय से मीठे फल खाने को मिलते रहे हैं, उन्हीं हाथों से अनजाने में एक कड़वा फल मिल गया तो उसके लिए शिकायत क्योंकर करूँ। सारे कड़वे टुकड़े वह इसलिए लेता गया ताकि राजा को फल की कड़वेपन का ज्ञान न हो सके।
         वास्तव में यही होती है मित्रता। जहाँ एक मित्र दूसरे मित्र के लिए दुनिया से मिले कष्टों और परेशानियों के कड़वे घूँट बिना किसी शिकवा-शिकायत के पी लेता है। वह अपने मित्र को इसका अहसास तक नहीं करवाता। उसे समय बीतने पर उसे स्वयं ही सब कुछ पता चल जाए तो बात अलग होती है।
          मित्र यदि हमेशा एक-दूसरे की आदतों को नापसन्द करते हुए परस्पर टीका-टिप्पणी करते रहें या पीछे पीठ पर छुरा घौंपने का कार्य करें तो उसे मित्रता नहीं कह सकते। ऐसी दोस्ती को दूर से ही नमस्कार कर देना चाहिए। इस सम्बन्ध में केवल स्वार्थ प्रधान होते हैँ। यहाँ मित्रता में स्थायित्व की सम्भावना कम होती है। जहाँ स्वार्थ पूरा हुआ वहीं दोनों किनारा कर लेते हैं।
         आज भी भगवान कृष्ण और गरीब ब्राह्मण सुदामा की मित्रता को हम इसीलिए याद करते हैं क्योंकि दोस्ती रंग-रूप, अमीरी-गरीबी, जात-पात, मनुष्य के रुतबे आदि से कहीं ऊपर होती है। वहाँ भी दो दिलों का निस्वार्थ मिलना महत्त्वपूर्ण होता है। एक-दूसरे पर जान छिड़कने और सुख-दुख में सहायता करने वाले मित्रों से लोग अनावश्यक ही ईर्ष्या करके अपना खून जलाते हैं।
          मित्र को उसकी अच्छाइयों और कमियों के साथ स्वीकार करना चाहिए। वहाँ किसी भी प्रकार की शिकायत की गुँजाइश नहीं होती। अपने सम्बन्ध हमेशा के लिए बने रहें यह बहुत ही जरूरी होता है। तभी मित्रता स्थायी रह सकती है।
चन्द्र प्रभा सूद
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें