शनिवार, 18 जून 2016

जीवन के मायने

जीवन को जीने के हमारे मायने बदलते जा रहे हैं। हमारी जीवन शैली में आमूल चूल परिवर्तन हो चुका है। हमारा आहार-विहार जीवनोपयोगी नहीं रह गया। मनीषियों का कथन है कि हमें जीने के लिए खाना चाहिए परन्तु हम खाने के लिए जीने लगे हैं।  
          तात्पर्य यह है कि संतुलित और सुपाच्य भोजन के स्थान पर हम मिर्च-मसालों वाला और जंक फूड खाना पसन्द करते हैं। परिणाम स्वरूप हम अनेक बिमारियों को न्यौता दे बैठते हैं। कुछ लोग लाचार हैं, मजबूर हैं इसलिए बीमार है किन्तु कुछ दूसरे लोग अपनी बिमारियों की वजह से लाचारी का जीवन ढो रहे है।
          सारा दिन टेबल वर्क करने से भी शरीरिक समस्याएँ बढ़ रही हैं। तब जिम संस्कृति के चक्कर में पड़कर और परेशान होते हैं। डाक्टर परामर्श देते हैं सैर करिए। उस समय अमीर लोग खाना पचाने के लिए मीलों चलते हैं। इसके विपरीत गरीब व्यक्ति खाना खाने के लिए पता नहीं कितने मील चल लेता है।
           आज महँगाई के समय घर के सभी लोग कमाने में लगे हुए हैं। दिन-रात काम की धुन में खाने-पीने की सुध नहीं रहती। जिस भोजन को पाने के लिए इतने जतन करते हैं उसी खाने के लिए समय नहीं निकल पाता। दूसरी ओर ऐसे भी असहाय लोग हैं जिनको खाने के लाले पड़े हुए हैं। उन बेचारों को कितने वक्त का खाना नसीब हो पाएगा, कुछ निश्चित नहीं।
          अपनी गरीबी की लाचार अवस्था में माता-पिता अपने बच्चों को रोटी खिला देते हैं और स्वयं भूखे रह जाते हैं। उधर साधन सम्पन्न होते हुए भी बच्चे माता-पिता को असहाय छोड़ देते हैं। वे बेचारे दाने-दाने को मोहताज हो जाते हैं और दरबदर की ठोकरें खाते हैं। स्थिति बड़ी विकट बनती जा रही है कि दो वक्त की रोटी न खिलानी पड़ जाए इसलिए अपने प्रियजनों से मुँह मोड़ लिया जाए।
दिन-प्रतिदिन हम अपने संकुचित विचारों के कारण इस दुनिया को भी संकीर्ण बनाते जा रहे हैं। ईश्वर ने तो हमें ऐसा कभी नहीं बनाया था फिर नकारात्मक परिवर्तन क्योंकर हो गया।
          कुछ समय पहले जब हम बच्चे थे तब प्रतिदिन छोटी-छोटी बातों पर लड़ते-झगड़ते थे, तकरार करते थे और फिर थोड़े समय बाद एक-दूसरे को मना भी लिया करते थे। एक-दूसरे के गले मे गलबहियाँ डालकर मुस्कुराते थे। अब जब हम बड़े हो गए हैं तो हमारे अहं टकराने लगे हैं, हम बचपन जैसी सहजता औऱ सरलता कहीं पीछे छोड़ आए हैं। इसलिए स्थितियाँ बहुत खराब हो गई हैं। अब यदि हम एक बार लड़ते है तो रिश्तों को खत्म करने के बहाने ढूँढने लगते हैं। आपसी प्यार और विश्वास तो मानो खो गए है।
    जिन्दगी ने हमें बहुत अनुभवी बना दिया है। हम आवश्यकता से अधिक सीखकर बुद्धिमान हो गए हैं। अब हम इतने बड़े होते जा रहे हैं कि बाकी सब हमें बौने दिखाई देते हैं। किसी दूसरे के कष्ट को देखकर हमारा मन बिल्कुल नहीं पसीजता। हम हाथ बढ़ाकर किसी की सहायता नहीं करना चाहते। हमें सिर्फ अपनी समस्याएँ दिखाई देती हैं।
          हम लोगों पर आज केवल स्वार्थ हावी होता जा रहा है जो बहुत ही गलत है। न तो हमें अपने दोस्तों में कोई दिलचस्पी है और न ही अपने भाई-बन्धुओं में। जिससे हमारे स्वार्थ पूरे होते हैं वही हमें अपना-सा प्रतीत होता है। स्वार्थ पूरे होने के बाद सबके रास्ते अलग हो जाते हैं।
         अपने हृदयों को थोड़ा विशाल बनाकर और सकारात्मक रूख अपनाकर हम इस संसार को अपना बना सकते हैं। इस जीवन यात्रा में हमे बहुत से हमसफर मिलते हैं। उनके साथ यदि कदम मिलाकर चलने की मानसिकता हम बना लें तो तभी बदलाव की उम्मीद कर सकते हैं। हम सब मिलकर ही सम्बन्धों में परिवर्तन लाने में सफल हो सकते हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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