बुधवार, 21 दिसंबर 2016

देवासुर संग्राम

देवासुर संग्राम के विषय में वेदादि ग्रन्थों में प्रायः वर्णन मिलता है। यह देवासुर संग्राम आखिर है क्या? यह जिज्ञासा मन में उठनी स्वाभाविक है। भाष्यकार इस देवासुर संग्राम का शाब्दिक अर्थ करते हैं देवताओं और राक्षसों का युद्ध।
         अब सोचना यह है कि ये देवता और राक्षस कौन थे और इनमें हर समय युद्ध क्यों होता रहता था? इनको लड़ने के अतिरिक्त क्या और कोई कार्य नहीं था? यदि देवता झगड़ते रहते थे तो फिर वे कैसे देवता थे? राक्षसों की और देवताओं की आपस में शत्रुता का कारण क्या था?
       ऐसे प्रश्नों का मन में उठना आवश्यक है। हम तो अभी तक यही जानते व मानते हैं कि देवता दिव्य गुणों से युक्त  परोपकारी व संयमशील होते हैं। इनके विपरीत राक्षस या दुष्ट मानवोचित गुणों से रहित निर्दय होते हैं। फिर इन दोनों की शत्रुता व मित्रता की बात गले से नहीं उतरती।
      ये सभी जिज्ञासाएँ यदि हमारे मन को उद्वेलित करें तो कोई आश्चर्य नहीं। यह तो मानव मन की स्वभाविक प्रक्रिया है। यहाँ इस विषय में हम कह सकते हैं कि यह देवासुर संग्राम मात्र प्रतीकात्मक वर्णन है।
      वास्तव में यह युद्ध हमारे अंतस में हमेशा होता रहता है। हमारे मन में उठने वाले सद् विचारों और कुविचारों अर्थात दैवी वृत्तियों और आसुरी वृत्तियों का अंतर्द्वंद्व ही वास्तव में देवासुर संग्राम है। दोनों ही विचार हार नहीं मानना चाहते इसीलिए मनुष्य द्वन्द्व की स्थिति में रहता है। करणीय और अकरणीय के अंतर को समझने की कशमकश में रहता है।
       हमारे मन के सुविचारों को देवता माना है और कुविचारों को असुर की संज्ञा दी गई है। हमें आयुपर्यन्त यह संग्राम करते रहते हैं। कभी हम विजयी होकर ऊँचाइयाँ छूते हैं और कभी पराजित होकर शर्मसार होते हैं। यह खेल जीवनभर चलता ही रहता है।
     समाज में रहते हुए मनुष्य बहुत से लोगों से मिलता है। कुछ से प्रभावित होता है और कुछ पर वह अपनी छाप छोड़ देता  है। इस प्रकार आपसी सौहार्द से जीवन व्यतीत होता है।
      हम स्वयं अपनी बात अब करते हैं। चौबीसों घंटे अपने-अपने दायित्वों का निर्वहण करते समय अनेकानेक चाही-अनचाही स्थितियों का सामना करते हैं। उन्हीं के परिणाम स्वरूप विचार मंथन निरंतर चलता रहता है।
      हमारे मन में सुविचार और कुविचार परस्पर संघर्ष करते हैं। जब सुविचारों की अधिकता होती है और वे कुविचारों पर हावी हो जाते हैं अर्थात् मन में आए हुए सुविचार जब कुविचारों को जीत लेते हैं तो मनुष्य सन्मार्ग पर चलता है और धीरे-धीरे देवतुल्य हो जाता है। समाज उसे देवता की संज्ञा देकर पूजता है।
        इसके विपरीत यदि हमारे मन के कुविचार सुविचारों पर हावी हो जाते हैं  या जीत जाते हैं तो मनुष्य कुमार्ग अर्थात् गलत रास्ते पर चल पड़ता है। यहीं से उसका पतन आरंभ होता है। यह गिरावट कहाँ  तक जाएगी कहना कठिन होता है। समाज में उसे हेय दृष्टि से देखता है। ऐसे कुमार्गगामी व्यक्ति का सभी परित्याग करते हैं। वह घर-परिवार व बन्धु-बान्धवों के लिए शर्मिंदगी का कारण बनता है।
        इसलिए समझदार मनुष्य को चाहिए कि वह क्षणिक प्रलोभन में न फँसकर अपने अंदर मौजूद अच्छाइयों को पहचाने और उन्हें छोड़े नहीं। अपने मन में आने वाले कुविचारों को झटक दे। तभी उसका तथा समाज का उत्थान संभव है।
चन्द्र प्रभा सूद
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