गुरुवार, 8 दिसंबर 2016

सिद्धान्तों से समझौता नहीं

विचारणीय है कि मनुष्य को ईश्वर ने यह बहुमूल्य शरीर, धन-दौलत, सम्पत्ति, घर-परिवार, बन्धु-बान्धव आदि इतना कुछ दिया है। फिर भी वह थोड़ी-सी धन-सम्पत्ति के लिए सारी आयु झगड़ा करता रहता है। उसके लिए छल-फरेब करता है। किसी की भी धन-सम्पत्ति हड़पने से चूकता नहीं है यानी होशियारी दिखाता है। फिर उसका
परिणाम चाहे कुछ भी हो जाए।
         मजे की बात यह है कि जिस धन-वैभव को पाने के लिए सारे छल-प्रपञ्च करता है, स्याह-सफेद तक करता है, फिर उसी अपनी सारी सम्पत्ति को इस संसार में ही छोड़कर खाली हाथ इस दुनिया से विदा ले लेता है। उस समय मनुष्य भूल जाता है कि वह खाली हाथ इस दुनिया में आया और खाली हाथ ही यहाँ से विदा लेगा। उसका सब कुछ यहीं धरा रह जाता है। उसके पीछे वाले फिर उसे उड़ाएँ या उसका सदुपयोग करें उसे कोई लेना- देना नहीं होता है।
          बताइए, यही सब करना है तो फिर इतना मूल्यवान यह मानव जीवन प्राप्त करने का क्या लाभ होता है?
         यह तो वही बात हुई कि शब्दकोश में असंख्य शब्द हैँ फिर भी मौन रहते हैं। किसी के पक्ष में कुछ भी नहीं कहते। वे तभी मुखर होते हैं जब कोई व्यक्ति उन्हें खोजता है। यह भी तो सबसे बेहतर विचार नहीं हो सकते।
       खाने के लिए इस दुनिया में नाना प्रकार के पदार्थ हैं फिर भी कुछ लोगों को मजबूरी में उपवास करना पड़ जाता है। इसके विपरीत कुछ लोग स्वेच्छा से शरीर को फिट रखने के लिए इस उपवास को बेहतर मानते हैं। दोनों ही प्रकार के लोग इन सुस्वादु भोज्य पदार्थों से वञ्चित रह जाते हैं, ललचाते रहते हैं।
        इस दुनिया में अनेक प्रकार के रंग होते हैं फिर भी सफेद रंग को सबसे श्रेष्ठ माना जाता है। यह सादगी और शान्न्ति का प्रतीक माना जाता है। इसका कारण यही है कि उसे किसी भी रंग में मिलाया जा सकता है। हर स्थिति में वह स्वयं को आत्मसात करके अपना महत्त्व प्रतिपादित करता है। 
        यह ब्रह्माण्ड बहुत सुन्दर है। प्रकृति की छटा निहारते बनती है। ईश्वर ने इतने सुन्दर जीव-जन्तु इस संसार में बनाकर भेजे हैं। उन्हें बस देखते ही रहने का मन करता है। इतना सब कुछ दर्शनीय होते हुए भी आँखों को बन्द करके, अपने ही अंतस में झाँकने की आवश्यकता होती है। वहीं पर हम परमपिता परमात्मा को पा सकते हैं। उसके उज्ज्वल प्रकाश में स्वय को आत्मसात भी कर सकते हैं।
       जीवन में सलाहकार बहुत मिल जाते हैं। खुशी या गमी के अवसर पर, बिमारी के समय, सफलता-असफलता मिलने पर शुभचिन्तकों यानी सलाहकारों की फौज खड़ी हो जाती है। इतने सारे अपनों के होते हुए भी अपनी अन्तरात्मा की आवाज सुनना श्रेयस्कर होता है। यदि मनुष्य इस आवाज के माध्यम से ईश्वर द्वारा दी जाने वाली चेतावनी को सुन ले तो वह कुमार्ग की ओर जाने से बच सकता है।
          जीवनकाल में मनुष्य को हजारों प्रलोभन मिलते हैं। उसका अपना मन भी आराम करना चाहता है, सुविधाभोगी बनना चाहता है। इसलिए उसे शार्टकट अपनाने के लिए प्रेरित करता रहता है। इस चक्कर में वह अनाप-शनाप कार्य कर बैठता है जिनके कारण उसे आगे जाकर भुगतना पड़ता है। जब उसे अपनी की गई गलती का अहसास होता है, तब तक समय उसके हाथ से निकल चुका होता है।
         जो व्यक्ति इस मन के झाँसे में आकर अपने सिद्धांतों से समझौता कर लेता है, उसे जीवन पर्यन्त पश्चाताप की अग्नि में जलना पड़ता है। समय बीत जाने पर फिर ढोल पीटने का कोई उपयोग नहीं होता। इसलिए अपने विचारों में दृढ़ता लाकर स्वयं द्वारा निश्चित किए गए मार्ग से पीछे नहीं हटना चाहिए। सन्मार्ग पर चलते हुए जीना ही वास्तव में जीना होता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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