रविवार, 25 दिसंबर 2016

आए थे हरि भजन को

निम्नलिखित पंक्ति को पढ़कर हम कवि के अंतस की पीड़ा का सहज ही अनुमान लगा सकते हैं-
       'आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास'
अर्थात मानव का यह चोला मनुष्य को ईश्वर की भक्ति करने के लिए मिला था पर इस संसार की हवा लगते ही मनुष्य अपने सब वायदे भूलकर यहाँ के कारोबार में व्यस्त हो जाता है और फिर उस मालिक की ओर से अपनी नजरें फेर लेता है।
            मनीषियों का कथन है कि जब जीव माता के गर्भ में होता है तो उस समय वह कष्ट उससे सहन नहीं होता। ईश्वर को उस अंधकार से बाहर निकालने के लिए वह गुहार लगता है। तब वह कसमें खाता है कि वह जन्म लेने के पश्चात उस मालिक की आराधना करेगा, उसे हर पल याद स्मरण करेगा और क्षण भर के लिए भी उसे नहीं भूलेगा।
          इस संसार में जब वह जन्म लेने के  कुछ समय तक उसे सारी कसमें याद रहती हैं और उस प्रभु का स्मरण करता है। फिर धीरे-धीरे दुनिया के झमेलों में घिरता हुआ वह ईश्वर की ओर से विमुख होने लगता है। तब वह सोचता है कि सारी उम्र पड़ी है हरि का भजन करने के लिए। अपनी बात को पुष्ट करने के लिए वह नित नए बहाने खोजने लगता है।
          इस तरह करते हुए सारी आयु बीत जाती है और अन्तकाल आ जाता है परन्तु हरि भजन की आयु नहीं आ पाती। काल को सामने देखकर वह हाथ जोड़कर क्षमा याचना करता है परन्तु उस समय तक तीर निशाने से निकल चुका होता है और बचते हैं वही ढाक के तीन पात। कहने का तात्पर्य है कि तब प्रायश्चित करना ही शेष बचता है जिसका कोई लाभ नहीं होता। इसका कारण यही है कि तब उस समय मालिक पश्चाताप करने के लिए पलभर का समय भी मोहलत के रूप में उधार नहीं देता।
          हम भी यदि किसी को समय सीमा निश्चित करके कोई काम देते हैं और वह तय समय में नहीं हो पाता तो हम भी दूसरे व्यक्ति पर दया नहीं दिखाते बल्कि उसे लताड़ते हैं। एकाध बार तो हम उसे क्षमा कर सकते हैं परन्तु यह उसकी आदत बन जाती है तो हम उसे कदापि नहीं छोड़ते। और वह कार्य उससे छीन लेते हैं।
       यदि हम ऐसा व्यवहार दूसरों से करते हैं तो उस सर्वशक्तिमान से कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वह बारबर हमें अपने काम में कोताही करने पर हमारी पुकार पर द्रवित हो जाए। हमें माफ करके थोड़ा और समय उपहार में दे।
           इस पृथ्वी पर हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार उस मालिक ने निश्चित समय देकर हमें भेजा है। उसी समय के अनुसार हमें सौंपा गया कार्य निपटाना है। हम न जाने कितने जन्मों से अपने लिए निर्धारित कार्यों को पूरा नहीं कर रहे तो हम उस मालिक से आँख मिलाने का साहस ही नहीं जुटा पाते। हमारी बारबार याचना करने पर भी वह अनसुना करता है क्योंकि वह हमारी आदतों को भली-भाँति जानता है।
           इसीलिए मनीषि कवि के मन में यह क्षोभ है कि वह दुनिया के बेकार के कामों में उलझा रहा जिनके बिना उसका जीवन बड़ी आसानी से सुविधा पूर्वक चल सकता था। जिस कार्य को करने का लक्ष्य लेकर वह इस धरा पर अवतरित हुआ था, उसे पूरा करने में सफल नहीं हो पाया। इसलिए वह नाकामयाबी का कलंक अपने माथे पर लेकर इस दुनिया से विदा हो रहा है।
          उचित समय तो हमेशा ही रहता है। इसलिए उसकी प्रतीक्षा न करते हुए अपने लक्ष्य यानि ईश्वर की उपासना करते हुए मोक्ष प्राप्त करने की ओर मात्र ध्यान लगाना चाहिए। ऐसा करते हुए हम उस मालिक के प्रिय पात्र बनेंगे और उससे मुँह छिपाने की आवश्यकता नहीं रहेगी। जब उसके पास जाने के लिए प्रसन्नता से समय की प्रतीक्षा करेंगे। तब यह दुख नहीं होगा कि अपने लक्ष्य को भूलकर संसार के चक्रव्यूह में फंसे रहे।
चन्द्र प्रभा सूद
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