सोमवार, 5 दिसंबर 2016

अति इच्छाओं का त्याग करें

इच्छाएँ या कामनाएँ असीम हैं। इनका कोई ओर-छोर नहीं है। इनके पीछे भागते रहने से परेशानियों के अतिरिक्त और कुछ भी हासिल नहीं होता। इन अनन्त कामनाओँ का निरोध करना अति आवश्यक होता है अन्यथा मनुष्य सारा जीवन भटकता ही रहता है। इस भटकाव का कभी अन्त नहीं होता।
        इसीलिए मनीषी समझाते हैं कि सुख और शान्ति से जीना चाहते हो तो इनके पीछे भागना छोड़ दो। जब इनको वश में कर लोगे तो ये स्वयं दास की आदेश का पालन करने लगती हैं।
        कामनाओँ का पूर्णरूपेण त्याग नहीं कर सकते इसलिए उन इच्छाओं का गला नहीं घोटना चाहिए। जिनके बिना जीवन जीना ही दुश्वार हो जाता है, उनकी कामना करनी चाहिए। निम्न श्लोक में ऐसा ही भाव प्रकट किया गया है-
           अतितॄष्णा न कर्तव्या तॄष्णां नैव परित्यजेत्।
           शनै: शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं  वित्तमुपार्जितम्।।
अर्थात अति इच्छाएँ नहीं करनी चाहिए परन्तु इच्छाओं का सर्वथा त्याग भी नहीं करना चाहिए। अपने कमाए हुए धन का धीरे-धीरे उपभोग करना चाहिए।
         इस श्लोक का यही कथन है कि अति कामनाओँ का परित्याग करना चाहिए किन्तु इच्छा का नहीं। इसे और स्पष्ट करते हैं। मनुष्य को अपने तथा अपने परिवार के अच्छे से पालन-पोषण के लिए जिन-जिन वस्तुओं की आवश्यकता होती है उनकी कामना करनी चाहिए। उन्हें जुटाने के लिए सार्थक प्रयास भी करना चाहिए।
     इसी बात को उदाहरण से और स्पष्ट करते हैं। अपने रहने के लिए सुन्दर-सा घर है पर और-और घर खरीदने की इच्छा करने से परेशान रहना। अच्छी-भली गाड़ी घर में लेकिन पड़ोसी की ज्यादा बड़ी गाड़ी देखकर उसे खरीदने की कामना करना। कहने का तात्पर्य यही है कि दूसरों की होड़ करते हुए उन वस्तुओं को खरीदना समझदारी नहीं है।
       पहले हमें यह तो विचार कर लेना चाहिए कि जिस वस्तु की हम चाहना कर रहे हैं उसकी हमारे लिए क्या उपादेयता है? क्या उसके बिना हमारा गुजारा नहीं हो सकता है? क्या उसे खरीदने के लिए अपने पास पर्याप्त संसाधन हैँ? कहीं ऐसा तो नहीं कि उसे घर लाकर, थोड़े समय उसे क्या हम पश्चात कबाड़ में डाल देंगे?
          ये कुछ प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमें स्वयं ही देना होता है। जिन वस्तुओं की हमें आवश्यकता ही नहीं है उन्हें दूसरों की होड़ करते हुए अपनी सामर्थ्य न होते हुए  भी कर्ज लेकर खरीदना लेना समझदारी नहीं कहलाती। इसे ही अतितृष्णा कहा जाता है जो मनुष्य के विनाश का कारण बनती है।
        अपने कठोर परिश्रम से अर्जित धन का अपव्यय नहीं करना चाहिए। उसे सदा सम्हालकर खर्च करना चाहिए। अपने पास धन है तो सभी सहायक हैं अन्यथा कोई नहीं पूछता। धन न होने पर अपने प्रिय बन्धु-बान्धव भी निस्सहाय अवस्था में निपट अकेला छोड़कर किनारा करने में ही अपना भला समझते हैं।
         यह धन हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति तो करता ही है, साथ ही दुख-सुख आने के समय हमारी सहायता भी करता है। यदि उस समय पैसा पास न हो तो कोई मदद करने के लिए आगे नहीं आता। इसलिए अपने धन को व्यर्थ ही उड़ाने के स्थान पर उसे अपने धूप-छाँव के समय के लिए बचाकर रखना बुद्धिमानी होती है।
        यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं को सीमित कर ले अथवा अति इच्छाओं से परहेज कर ले तो उसे बहुत-सी चिन्ताओं से मुक्ति मिल सकती है। ऐसे ही लोगों को शहन शाहों का शाह कहा है। यही भाव निम्न दोहे में कहे गए हैं-
        चाह गई  चिन्ताप   मिटी  मनुआ   बेपरवाह।
        जिनको कछु नहीं चाहिए वे साहन के साह।।
          जीवन में सुखी व प्रसन्न रहने का निस्सन्देह यही मूल मन्त्र है कि अपनी इच्छाओं को सीमित करना चाहिए। अपने खून-पसीने से कमाए धन का दुरूपयोग न करके उसे अपने लिए सुरक्षित रखना चाहिए। सर्वत्र अति से बचना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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