सोमवार, 26 दिसंबर 2016

दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार

मनुष्य को व्यवहार कुशल बनना चाहिए। उसमें इतनी समझ अवश्य होनी चाहिए कि हर व्यक्ति के साथ एक जैसा व्यवहार नहीं किया जा सकता। सज्जनों और विद्वानों के साथ सज्जनता का व्यवहार करना चाहिए अर्थात उनके समक्ष सदा विनम्र होकर ही रहना चाहिए। उनकी तरह सहृदय बनकर रहना चाहिए।
        दुर्जनों के साथ तो किसी भी तरह से सज्जनों जैसा व्यवहार किया ही नहीं जा सकता। इसका कारण यही है कि वे ऐसे व्यवहार के योग्य नहीं होते। एक विद्वान ने बड़े सुन्दर शब्दों में कहा हैं कि दुष्ट के साथ सदा दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए-
                शठे शाठ्यं समाचरेत्।
इसी बात को हम दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि-
            ईंट का जवाब पत्थर से देना चाहिए।
         लोगों का ऐसा मानना है कि एक दुष्ट व्यक्ति साँप की ही तरह जहरीला होता है। उसके साथ कितना भी अच्छा व्यवहार क्यों न किया जाए, मौका मिलने पर वह डंक मारने से बाज नहीं आता। यानी साँप को कितना भी दूध क्यों न पिलाओ, वह तो अपनी औकात दिखा ही देता है। अर्थात वह अपना स्वभाव नहीं छोड़ता बल्कि डंक मार ही देता है।
       कहने का तात्पर्य है कि यदि किसी दुष्ट व्यक्ति के साथ नरमी का बर्ताव किया जाएगा तो उसका दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ जाएगा। वह समझेगा कि मेरे साथ जो सरलता का व्यवहार कर रहा है, वह मनुष्य डरपोक है अथवा कायर है। उसमें इतनी सामर्थ्य ही नहीं है कि वह किसी को सजा दे सके। इसीलिए वह विनम्रता का प्रदर्शन कर रहा है।
         दुष्ट के साथ किसी कटु अनुभव के कारण ही शायद अन्य विद्वान ने अपना मत रखते हुए कहा है-
                 आर्जवं हि कुटिलेषु न नीति:।
अर्थात् दुष्टों के साथ सरलता का बर्ताव करना वास्तव में नीति नहीं कहलाती।
          नीति यही कहती है कि दुष्ट के साथ दुष्टता का व्यवहार करना चाहिए। उसके साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए जिससे उसे ऐसा प्रतीत न हो कि सामने वाला कमजोर हैं या उसका प्रतिकार कर सकने में उसमे समर्थ नहीं है।
        वैसे सभी सज्जन यही चाहते हैं कि उन दुष्ट लोगों को सुधारने का एक अवसर दिया जाना चाहिए। सोचने की बात है कि मात्र एक अवसर मिलने पर क्या वास्तव में उनमें सुधार हो सकता है?
         ऐसा प्रतीत होता है कि शायद वे इस तथ्य को समझ ही न सकें कि उन्हें सुधरने की आवश्यकता है। वे स्वयं को महान मानते हैं। इसलिए अपने आचार-व्यवहार में वे कोई बदलाव नहीं करना चाहते।
         यदि उनमें सकारात्मक परिवर्तन हो सके तो सुधारकों के लिए यह बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी अन्यथा इसे समय की बरबादी ही कहा जाएगा।
        दुष्ट को यदि क्षमा कर देंगे तो वह हमारा उपहास करेगा और कहेगा कि हम में हिम्मत नहीं है, उससे डर गए है। उसका शायद साहस बढ़ जाएगा। वह हमारी क्षमाशीलता को कमजोरी समझकर और अधिक अत्याचार करने का यत्न करेगा। इसलिए उसका प्रतिकार करना बहुत ही आवश्यक होता है।
        अपवाद सर्वत्र उपलब्ध हो सकते हैं। इतिहास की खोज करने पर ऐसे व्यक्तित्व मिल जाएँगे। रत्नाकर डाकू (वाल्मीकि) व अंगुलीमाल डाकू दोनों ही महात्माओं की संगति में महान बने। अपने जीवन में आदर्श बनकर उन्होंने समाज को दिशा और दशा देने का कार्य किया। अँगुलियों पर गिने जा सकने वाले ऐसे कुछ ही लोग समाज में मिलेंगे।
      संस्कृत और हिन्दी की कुछ उक्तियों को आपके समक्ष रखते हुए यह विवेचना मैंने की है। अब आप सुधीजनों को विचार करना है कि हमें ऐसे दुष्ट लोगों के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए? सज्जनों के प्रति अपने व्यवहार पर अंकुश रखना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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