सोमवार, 1 मई 2017

नदी बेखबर बहती है

आ बैठी हूँ मैं इस  दरिया के किनारे
सोचती हूँ इसके  पानी को लकीर से
दो हिस्सों में बाँट इसे दूँ सदा के लिए
लो देखो जरा यह क्या हो रह है यहाँ

मिट गई वो लकीर जो मैंने खींची थी
बारबार कोशिश करती जा रही हूँ मैं
पर यह लकीर है कि खिंचती नहीं है
पानी के साथ अठखेलियाँ करती हुई

यह भागती जा रही है दूर दूर और दूर
मेरी नजरों से ओझल होती जा रही है
मानों मुँह चिढ़ाती कह रही हो ये मुझे
और कह रही हो अरी नादान मत बन

ऐसी मूर्खता  करती  बैठी है छलावे में
बहते  पानी को क्या कभी सपने में भी
इस जहाँ में अब तक कोई रोक पाया है
तू भी करले सबकी तरह जतन बारबार

सोच ले फिर हर बार मुँह की ही खाएगी
कब कोई ढूँढ कर आ पाया है आजतक
रमते योगी और बहते पानी का ठिकाना
फिर मुझे चेताते हुए अब बोली थी नदी

मेरे पानी को है इंसान समझ लिया तुमने
जिसे बाँटोगे तुम  बारबार जब तक यहाँ
कभी धर्म के नाम से कभी जाती नाम से
कभी  अमीर और गरीब की  तकदीर से

कभी नस्लभेद और कभी रंग के भेद से
कभी लिंग या कभी भाषा के ही नाम पर
नित नए बखेड़े खड़े करना तुम्हें भाता है
न तो मैं इंसान हूँ और न ही मेरा ये पानी

तुम इंसानों की दुनिया से नहीं है वास्ता
मैं अनवरत गाती हुई मस्त रहती हूँ सदा
अपनी धुन में निरंतर बहती हुई दिन-रात
अपने लक्ष्य  समुद्र तक जाती हूँ चाव से

वह भी बाहें पसारे ताकता मेरी राह है
तुम  इंसान हो  भटकते रहो  लक्ष्यहीन
यहाँ से वहाँ और फिर वहाँ से यहाँ तक
मुझे और मेरे पानी को दूषित करते हो

मैं फिर भी सबको माफ करती अनकहे
भाई अब न तुम  झंझाल  बनो मेरे लिए
बस  बहुत हो गया  चले  जाओ यहाँ से
रोको न  मेरा रास्ता जाने दो मुझे  अब।
चन्द्र प्रभा सूद
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