रविवार, 14 मई 2017

लोभ पतन का कारण

लोभ या लालच मनुष्य के नैतिक पतन का कारक होता है। यदि यह मनुष्य के सिर पर सवार हो जाए तो उसके विवेक का शीघ्र ही हरण कर लेता है। वह मनुष्य को स्वार्थी और कुमार्गगामी बना देता है। लोभ का सबसे बड़ा साईड इफेक्ट यह होता है कि वह मनुष्य को संग्रहशील बनने पर विवश कर देता है। इस संग्रह की क्या सीमा हो सकती है, इस विषय में कोई भी नहीं जान सकता।
        उच्च व सम्मानित पद पर बैठा हुआ वह धन कमाने के नए-नए अनाप-शनाप तरीके ढूँढने लगता है। उसे दूसरों को धोखा देने, किसी का गला काटने से परहेज नहीं होता। रिश्वतखोरी करना, भ्रष्टाचार में लिप्त होना, बेईमानी करना, कालाबाजारी करना आदि किसी भी नैतिक-अनैतिक प्रकार से धन कमाने का खून उसके मुँह पर लगने लगता है।
         मनुष्य धन-सम्पत्ति का संग्रह करते हुए इतनी दूर निकल जाता है जहाँ उसे अपनों की आवाज भी नहीं सुनाई पड़ती। वह बड़े गर्व से कहता है कि उसने इतना कमा लिया है की उसकी चार या छह पीढ़ियाँ आराम से बैठकर खा सकती हैं। यहाँ विचारणीय है कि मनुष्य स्वयं कठोर श्रम करे पर उसकी आने वाली पीढ़ियों को परिश्रम का महत्त्व ही न समझ आए। वे निट्ठली बैठकर अपने पूर्वजों की मेहनत की कमाई पर ऐश करें। उसे दोनों हाथों से लुटाकर बरबाद कर दें।     
        उस समय मनुष्य यह भी भूल जाता है कि ऐसे पापकर्म से कमाया हुआ धन नष्ट भी तो हो सकता है। कब बाढ़ आ जाए, सुनामी आ जाए, भूकम्प आ जाए या कोई महामारी फैल जाए इसके विषय में किसी को ज्ञात नहीं। कोई नहीं जानता कि कब युद्ध का घोष बज जाए, उस समय सारा कमाया हुआ ये धन मिट्टी में मिल जाता है। तब हाथ मलता हुआ मनुष्य सिर धुनकर रोता है, चिल्लाता है। उस समय उसकी आवाज नक्कारखाने में तूती की तरह किसी को भी सुनाई नहीं देती।
         'महासुभषितसंग्रह' में कवि ने लोभ के दुष्परिणाम के विषय में सचेत करने का प्रयास किया है -
              एको लोभो महाग्राहो लोभात्पापं प्रवर्तते।
               ततो  पापादधर्माप्तिस्ततो दुःखं  प्रवर्तते॥ 
अर्थात अकेला लोभ ही मनुष्य को एक ग्राह (मगरमच्छ) के समान जकड़ लेता है। उसके कारण वह पापकर्म की ओर प्रवृत्त होता है। तत्पश्चात वह अधार्मिक कार्यों में लिप्त हो जाता है, जिसके फलस्वरूप वह अनेक प्रकार के दुःखों में घिर जाता है।
        इस श्लोक का तात्पर्य यही है कि लोभ मगरमच्छ के समान है। यदि वह एक बार मनुष्य को जकड़ लेता है तो छोड़ता नहीं है। तब असामाजिक कार्यों में लिप्त मनुष्य उसकी जकड़न से छूटने का प्रयास करता है पर छूट नहीं पाता। तब उसे बहुत कष्ट होता है। वही हाल उस लोभग्रस्त व्यक्ति की होती है। उसके चँगुल में फँसा हुआ मनुष्य बाहर निकलने के लिए छटपटाता रहता है, भटकता रहता है। उससे बचने का मात्र एक ही उपाय है, वह है अपने लोभ या लालच को नियन्त्रित करना।
         लोभ अपने साथ अनेक बुराइयों को लेकर आता है। कहते हैं -
                       लोभो मूलमनर्थनाम्।
अर्थात लोभ सभी बुराइयों की जड़ है या कारण है।  
       धीरे-धीरे मनुष्य उन बुराइयों का घर बनता जाता है। वह बुराइयों को इस प्रकार से आत्मसात कर लेता है कि वे उसके अस्तित्व का ही एक हिस्सा बन जाती हैं। बहुत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि उस समय चाहकर भी लोग मनुष्य से बुराई को उससे अलग करके लोग नहीं देख सकते। उसके पास कितनी भी धन-सम्पत्ति क्यों न हो जाए, फिर भी लोग उससे किनारा करने में ही भलाई समझते हैं।
         शास्त्रों के अनुसार लोभ मनुष्य का सबसे बड़ा आन्तरिक शत्रु कहा जाता है। बाहरी शत्रुओं की तरह इस शत्रु पर विजय प्राप्त करना बहुत आवश्यक है। जब तक इसे जीता न जाए तब तक यह मनुष्य के दुखों का कारण बनता रहता है। यह उसे बुराइयों से दूर नहीं जाने देता। मनुष्य को अपनी मानसिक शान्ति और आध्यात्मिक उन्नति के लिए इसे अपने वश में करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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