जिस धरती पर हमने जन्म लिया, जिसकी मिट्टी में धूलधूसरित होते हुए बड़े हुए, जिसके अन्न-जल से पुष्ट हुए वह हमारी माता है। इसीलिए हम इसे जन्मभूमि कहते हैं।
जन्मभूमि हमारी अपनी जन्मदातृ माता की तरह सभी कष्ट सहन करके हमें जीवन की सारी खुशियाँ देती है। हमें स्वर्ग के समान सभी प्रकार के सुख-साधन देती है। हम इस धरा पर अत्याचार करते हैं अर्थात् अपने पैरों से इसे रौंदते हैं, जीभर कर कूड़ा-कचरा फैंकते हैं, अपना बोझ उस पर डालते हैं, बड़े-बड़े भवन बना कर हरियाली नष्ट करते हैं, पर्यावरण व प्रदूषण की समस्याएँ पैदा करते हैं। फिर भी यह हमसे नाराज नहीं होती बल्कि हमारा बोझ सहती है।
ऐसी मातृभूमि को छोड़ कर कहीं अन्यत्र जाने से मन में पीड़ा होनी चाहिए। अपनी धरती, अपना देश हमें प्रिय होना चाहिए। वाल्मीकि रामायण में भगवान राम लक्ष्मण से यही आशय व्यक्त कर रहे हैं-
न मे सुवर्णमयी लंकापि रोचते लक्ष्मण।
जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी॥
अर्थात् भगवान राम कहते हैं- हे लक्ष्मण मुझे सोने की लंका भी रुचिकर नहीं हैं। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी महान हैं।
अपने देश, अपने वेश और अपनी भाषा से हर व्यक्ति को प्यार होना चाहिए। जिस मनुष्य को इनसे प्यार नहीं वह मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं। उनकी अवहेलना करने वाला हमेशा निन्दनीय होता है। जिस इंसान को अपने देश, अपने वेश और अपनी भाषा से प्यार नहीं वह सही अर्थों में मनुष्य कहलाने का अधिकारी नहीं।
चन्द्र प्रभा सूद
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मंगलवार, 30 मई 2017
जन्मभूमि भी माता
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