गुरुवार, 18 मई 2017

अर्जित ज्ञान का क्रियान्वयन

मनुष्य को मात्र पुस्तकीय ज्ञान नहीं अर्जित करना चाहिए बल्कि उसका प्रैक्टिकल भी करना चाहिए। कवि ने कहा है - 'ज्ञानं भार: क्रियां विना' अर्थात वह ज्ञान भार यानि बोझ बन जाता है  जिसका क्रियान्वयन न किया जाए। यहाँ गधे का प्रसंग लेते हैं, उसके ऊपर कितना भी भार लाद दो, उसे ज्ञात ही नहीं होता कि उसके ऊपर क्या लड़ा गया है।
           जो व्यक्ति बिना अर्थ समझे तोते की तरह केवल रटने का कार्य करता है, उसकी स्थिति भी भारवाहक गधे की भाँति होती है। जितना भी ज्ञान अर्जित किया जाए उसे अपने जीवन पर अक्षरशः उतारना ही ज्ञान का क्रियान्वयन कहलाता है। यानी अपने जीवन पर उसको उतारना या प्रैक्टिकल करना चाहिए। अपनी बात को स्पष्ट करने के लिए 'पञ्चतन्त्र' की इस कहानी को देखते हैं, इसे कुछ दिन पूर्व अनिल पचौरी ने फ़ेसबुक पर पोस्ट किया था।
         किसी प्रदेश में चार ब्राह्मण रहते थे। वे विद्याभ्यास के लिये कान्यकुब्ज गये। वहाँ बारह वर्षों तक विद्याध्ययन करके, सम्पूर्ण शास्त्रों में वे पारंगत हो गए। परन्तु उन चारों में ही व्यवहारिक बुद्धि नहीं थी। विद्या ग्रहण करने के पश्चिम चारों स्वदेश लौटने लगे। कुछ देर चलने के बाद उन्हें मार्ग दो ओर जाता दिखाई दिया। ’किस मार्ग से जाना चाहिए’ इसका निश्चय न कर पाने के कारण वे वहीं बैठ गए।
         तभी वहाँ से एक वैश्य बालक की अर्थी निकली। अर्थी के साथ बहुत से लोग जा रहे थे। ’महाजन’ नाम से उनमें से एक को कुछ़ याद आ गया। उसने पुस्तक के पन्ने पलटकर देखा तो लिखा था - 'महाजनो येन गतः स पन्थ:' अर्थात् जिस मार्ग से महान जन जाएँ, वही रास्ता होता है। पुस्तक में लिखे वाक्य को ब्रह्म-वाक्य मानने वाले चारों पण्डित महाजनों के पीछे-पीछे श्‍मशान की ओर चल पड़े।
          उन्होंने श्‍मशान में कुछ दूरी पर एक गधे को खड़े हुआ देखा। गधे को देखते ही उन्हें शास्त्रोक्त वचन याद आ गए - 'राजद्वारे श्‍मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः' अर्थात् राजद्वार और श्‍मशान में जो रहता है, वही बन्धु होता है। फिर क्या था, चारों ने श्‍मशान में खड़े उस खड़े गधे को अपना बन्धु मान लिया। कोई उसके गले से लिपट गया तो कोई उसके पैर धोने लगा।
          इसी बीच एक ऊँट उधर से गुज़रा। उसे देखकर सब हैरान रह गए कि यह कौन-सा जीव है? ऊँट को वेग से भागते हुए देखकर उनमें से एक को पुस्तक में लिखा यह वाक्य याद आ गया - 'धर्मस्य त्वरिता गतिः' अर्थात् धर्म की गति बड़ी तीव्र होती है। उन्हें निश्चय हो गया कि वेग से जाने वाली यह वस्तु अवश्य ही धर्म है।
         कुछ समय पश्चात उनमें से एक को याद आया - 'इष्टं धर्मेण योजयेत्' अर्थात् धर्म से इष्ट को जोड़ो। उनकी समझ में इष्ट गधा था और ऊँट धर्म। दोनों का संयोग कराना उन्हेँ शास्त्र के अनुसार उचित लगा। बस, खींचकर उन्होंने ऊँट के गले में गढ़े को बाँध दिया जो एक धोबी का था। जब धोबी को पता लगा तो वह भागकर वहाँ आया। उसे अपनी ओर आता देखकर चारों विद्वान पण्डित वहाँ से भाग खडे़ हुए।
         थोड़ी दूरी पर एक नदी में पलाश का एक पत्ता तैरता हुआ आ रहा था। उसे देखकर एक को याद आया - 'आगमिष्यति यत्पत्रं तदस्मांस्तारयिष्यति" अर्थात् जो पत्ता तैरता हुआ आयगा, वही हमारा उद्धार करेगा। उद्धार की कामना करता हुआ वह 8मूर्ख पण्डित पत्ते पर लेट गया। पत्ता पानी में डूब गया तो वह भी डूबने लगा। केवल उसकी शिखा पानी से बाहर रह गई।
          इस तरह बहते हुए जब वह दूसरे मूर्ख पण्डित के पास पहुँचा तो उसे भी शास्त्रोक्त वाक्य याद आ गया - 'सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डितः' अर्थात् सम्पूर्ण का नाश हो रहा हो तब आधे का त्याग कर देना चाहिए। उसने बहते हुए पूरे आदमी का आधा भाग बचाने के लिये उसकी शिखा पकड़कर गरदन काट दी। शरीर तो पानी में बह गया किन्तु उसके हाथ में केवल सिर का हिस्सा ही आया।
        अब वे चार में से तीन रह गए थे। गाँव पहुँचने पर तीनों को अलग-अलग घरों में ठहराया गया। वहाँ उन्हें काने के लिए भोजन दिया गया। एक ने सेवियों को यह कहकर छो़ड़ दिया - 'दीर्घसूत्री विनश्यति' अर्थात् दीर्घ सूत्र वाली वस्तु नष्ट हो जाती है। दूसरे को रोटियाँ दी गईं तो उसे याद आ गया - 'अतिविस्तारविस्तीर्णं तद्भवेन्न चिरायुषम्' अर्थात् बहुत फैली हुई वस्तु आयु को घटाती है।
          तीसरे को छिद्र वाली वटिका दी गयी तो उसे याद आ गया- ’छिद्रेष्वनर्था बहुली भवन्ति’ अर्थात् छिद्र वाली वस्तु में बहुत अनर्थ होते हैं । परिणाम यह हुआ कि तीनों की जगहँसाई हुई और तीनों भूखे भी रह गए।
       पञ्चतन्त्र की यह कथा समझाती है कि ज्ञान चाहे कितना भी अर्जित कर लो, पर काम वही आएगा जिसे अपने आचरण में लाओगे। हमारा ज्ञान और हमारा धन तभी साथ निभाते हैं, जब तक अपने पास हैं अन्यथा किसी काम के नहीं हैं। यही भाव निम्न श्लोक में कवि ने प्रकट किया है -
              पुस्तस्था  तु या  विद्या  परहस्तगतं  धनम्।
              कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम्॥
अर्थात पुस्तकीय ज्ञान और दूसरे को दिया हुआ धन होता है, आवश्यकता पढ़ने पर न वह विद्या काम आती है और न ही वह धन अपना होता है। इसलिए अपने ज्ञान को बोझ न बनने दें बल्कि उससे अपना जीवन सफल बनाएँ।
चन्द्र प्रभा सूद
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