गुरुवार, 25 मई 2017

मंजिल को पाना

अपनी निर्धारित मंजिल को पा लेने की हार्दिक इच्छा हर मनुष्य की होती है। किन्तु ये मंजिलें बहुत ही जिद्दी होती हैँ, वे प्रायः भाग्य से प्राप्त होती हैं। उसे पाने के लिए मनुष्य को एड़ी-चोटी का जोर लगाना पड़ता है। थक हारकर बैठने वाले अपनी मंजिल को कभी नहीं प्राप्त कर सकते। यदि मनुष्य सफलता पाने के लिए केवल स्वप्न देखता रहे या ख्याली पुलाव बनाता रहे तो निश्चित ही उसे असफलता का मुँह देखना पड़ता है। इस तरह उसकी मंजिल उससे अधिक अधिक दूर होती जाती है।
          मंजिल को छू लेने की कामना करने वालों को अथक परिश्रम करना पड़ता है। दिन-रात एक करना पड़ता है। अपने लक्ष्य का अनुसन्धान करते हुए निरन्तर आगे कदम बढ़ाना होता है। फिर भी यदा कदा असफलताओं का मुँह देखना पड़ जाता है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जाना चाहिए कि मनुष्य घबराकर अपने लक्ष्य की ओर से ध्यान हटा दे। इस बात को सदा स्मरण रखना चाहिए कि परले पार वही व्यक्ति पहुँच सकता है जो किसी भी अपरिहार्य परिस्थिति में घबराता नहीं है। अर्जुन की तरह केवल मछली की आँख को लक्ष्य बनाकर सन्धान जो करता है, वही परम साहसी व्यक्ति अपनी मंजिल को हाथ बढ़ाकर छू पाता है।
        हम देखते हैं कि छोटी-छोटी नौकाएँ जब समुद्र को पार करने की जिद करती हैं तब उनके साहस के समक्ष तूफान भी अपना हथियार डाल देता है अर्थात वह आख़िरकार हारकर शान्त हो जाता है। अन्ततः वह यही कहता है कि चलो भाई, तुम जीत गए और मैं हार गया। अब तुम अपने मन की कर लो। मैंने तुम्हारे लिए इस रास्ते को खाली कर दिया है। वास्तव में यही साहस कहलाता है। जिसके बलबूते पर एक छोटी-सी नौका हार नहीँ मानती अपितु संघर्ष करती है। बारबार डगमगाती है और फिर बिना डरे आगे बढ़ती ही चली जाती है। फिर अन्त में जीत का स्वाद चखकर ही चैन लेती है।
         इसी तरह यदि मनुष्य को ईश्वर पर पूर्ण विश्वास हो तो अपने भाग्य में लिखा हुआ उसे सरलता से प्राप्त हो जाता है। इस सबसे भी बढ़कर यदि मनुष्य को स्वयं के बाहुबल पर पूरा भरोसा होता है तो ईश्वर को भी उसे मनचाहा वरदान देने के विवश होना पड़ता है। उसके लिए वही लिखता है जो वह मनुष्य उससे चाहता है। मनुष्य को अपनी सामर्थ्य पर और ईश्वर के न्याय पर केवल शतशः विश्वास होना चाहिए।
         संसार का यही दस्तूर है कि हार जाने वाले व्यक्ति का हाथ उसके अपने भी छोड़ देते हैं। उससे कोई भी सहानुभूति तक नहीं जताना चाहता। असफलता का कलंक लगते ही उसके अपने भी पराए हो जाते हैं। जिनसे उसे आशा होती है वे भी उसे असहाय छोड़ देते हैं। वह अकेला बैठकर अपने भाग्य को कोसता रहता है। निराशा उसे घेर लेती है और वह धीरे-धीरे तनावग्रस्त हो जाता है।
         जो व्यक्ति अपनी गलतियों से शिक्षा लेकर पुनः संघर्ष करने का साहस जुटा लेते हैं, वे अपने उद्देश्य में निश्चित ही सफल हो जाते हैं। मैं यही कहना चाहती हूँ कि जब तक अपना लक्ष्य, अपनी मंजिल न प्राप्त कर लें तब तक चैन की बाँसुरी बजाते नहीं बैठना चाहिए। मनुष्य को अपना लक्ष्य पाने के लिए किसी के कन्धे का सहारा भी नहीं तलाशना चाहिए।
        यह बात गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि दूसरों का मुँह ताकने वाले कभी अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते। वही समाज में उदाहरण बनकर दिग्दर्शक बन सकते हैं जो स्वयं अपने ऊपर भरोसा करते हैं। शेर की तरह इस संसार को खँगालने के लिए बिना अकेले ही चल पड़ते हैं। देखे पीछे मुड़कर नहीं देखते की कोई उनके पीछे आ रहा है अथवा नहीं। इसलिए कृत संकल्प होकर अपने लक्ष्य को, अपनी मंजिल को पाने के लिए तब तक बढ़ते रहना चाहिए जब तक उसे सफलता न मिल जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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