मंगलवार, 16 मई 2017

सूर्य के समक्ष दीपक

विद्वान के समक्ष कम योग्य अथवा अयोग्य व्यक्ति अधिक समय तक नहीं टिक पाता। उसे शीघ्र ही अपना बोरिया-बिस्तर गोल करना पड़ जाता है। सूर्य के सामने दीपक का कोई भी अस्तित्व नहीं होता। दीपक का महत्त्व तभी होता है जब सूर्य अस्त हो चुका होता है और चारों ओर घुप्प अन्धकार का साम्राज्य होता है। उस समय एक नन्हें दीपक का प्रकाश ही सब लोगों का पथप्रदर्शक बनता है।
         राजा के सामने रंक की कोई नहीं हस्ती नहीं होती। अमीर के सामने गरीब का कद छोटा हो जाता है। समुद्र के सामने तालाब और बावड़ी का अस्तित्व बौना होता है। बड़े और महान वृक्षों के सामने छोटे-छोटे पौधे नगण्य हो जाते हैं। महलों के सामने छोटी झोंपड़ियों को कोई महत्त्व नहीं देता। इसी प्रकार हम अपने आसपास बहुत से उदाहरण ढूँढ सकते हैं।
       इसका यह अर्थ कदापि नहीं लगाया जा सकता कि कमतर वस्तुओं का कोई महत्त्व नहीं होता। इसलिए उन्हें अनदेखा कर देना चाहिए। वास्तव में उनके होने ही महान और निम्न पर चर्चा की जाती है और लिखा-पढ़ा जाता है। यदि ये सब न हों तो महानता की पहचान कभी नहीं की जा सकती। इसलिए सभी का अपना-अपना महत्त्व होता है, उन सबका सम्मान समान रूप से होना चाहिए।
          इसी भाव को किसी कवि ने बहुत ही सुन्दर शब्दों में व्यक्त किया है -
             खद्योतो द्योतते तावद् यवन्नोदयते शशी।
             उदिते तु सहस्रांशौ न खद्योतो न चन्द्रमा:॥
अर्थात जब तक चन्द्रमा का उदय नहीं होता तब तक जुगनू चमकते हैं। परन्तु जब सूरज का उदय हो जाता है तब न तो जुगनू दिखाई देते हैं और न ही चन्द्रमा। दोनों ही सूरज के समक्ष फीके पड़ जाते हैं।
         कहने का तात्पर्य है कि जब तक आकाश में चन्द्रमा का उदय नहीं होता तब तक जुगनू अपना प्रकाश फैलाते  रहते हैं। उसके प्रकाशित होते ही जुगनुओं का प्रकाश मद्धम पड़ जाता है अथवा वे दिखाई ही नहीं देते। जिस चन्द्रमा की लोग पूजा करते हैं, उसे अर्घ्य देते हैं उसकी भी चमक प्रभासमान सूर्य के समक्ष फीकी पड़ जाती है। इसका यही अर्थ निकलता है कि योग्य व्यक्ति की उपस्थिति में अयोग्य लोग स्वतः ही गायब हो जाते हैं जैसे गधे के सिर से सींग।
         कुछ लोगों को आदत होती है कि वे स्वयं को महान बताने के लिए असत्य का सहारा लेते हैं। कह सकते हैं कि धन न होने पर धनवान होने का प्रदर्शन करते हैं। शक्तिहीन होते हुए शक्तिशाली होने का ढोंग करते हैं। अपने आप को हर विषय का जानकर बताने के लिए परिश्रम करते हैं। मूर्ख अथवा कम पढ़े होने पर स्वयं को विद्वान सिद्ध करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं।
         ऐसे मुखोटानुमा लोग सर्वत्र मिल जाते हैं। कुछ समय तक उनका असत्य परवान चढ़ सकता हैं यानी थोड़े समय के लिए वे अपना दबदबा दूसरों पर कायम कर सकते हैं, लम्बे समय के लिए दूसरों को कदापि धोखा नहीं दे सकते। जिस प्रकार सूर्य के उदय होने पर अंधकार के छँट जाने से सब स्पष्ट हो जाता है उसी प्रकार सच्चाई सामने आते ही उनकी पोल खुल जाती हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो दूध-का-दूध और पानी-का-पानी हो जाता है। उस समय अपनी कलई खुल जाने के कारण वे लोग समाज में हँसी का पात्र बनते हैं। सभी उनका उपहास करते हुए कहते हैं -
     'कौवा चला हंस की चाल और आपनी चाल भूल गया।'
        मनुष्य जैसा है, उसे वैसा ही सबके .सामने रहना चाहिए। उधार के लबादों से कभी सुन्दर दिखने का प्रयास नहीं करना चाहिए। अन्तस में विद्यमान कुरूपता को किसी भी प्रयास से ढका नहीं जा सकता। अपने अन्दर अधिक-अधिक गुणों का विकास करना चाहिए। अपनी योग्यताओं का विस्तार करना चाहिए। दूसरे शब्दों में सामने वाले की लकीर को काटकर छोटी करने के स्थान प मनुष्य को अपनी योग्यताओं का विस्तार करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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