बुधवार, 24 मई 2017

दान न देने के बहाने नहीं

अमीरी अथवा गरीबी किसी भी मनुष्य को विरासत में नहीं मिलती। उसके पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही मिलती है। संसार में आने के पश्चात उसे अपनी परिस्थतियों से लड़कर मनचाही सफलता पानी पड़ती है। यदि मनुष्य यह धारणा बना ले कि उसका कुछ भी नहीं होने वाला, उसका जीवन बस ऐसे ही रोते-झींकते बीतेगा तो सच में वैसा ही होता है।
         मनुष्य को अपने जीवनकाल में कदापि नहीं सोचना चाहिए कि किसी की सहायता करना अथवा किसी को दान तो केवल पैसे वाले लोगों का ही काम है। वे समर्थ हैं, इसलिए वही किसी को कुछ दे सकते हैं। यह तो कोई तर्क नहीं हुआ कि जिसके पास पैसा होगा, उसी के पास ही दूसरों की मदद करने की इच्छाशक्ति भी होगी। इस मिथ को सबको मिल-जुलकर ही तोडना होगा।
          'चमड़ी जाए पर दमड़ी न जाए' यह सिद्धान्त मानने वाले बहुत से ऐसे लोग इस संसार में मिल जाते हैं। वे स्वयं अपनी और अपने परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण नहीं करते, केवल पैसा बचाने में लगे रहते। वे अपने धन पर साँप की तरह कुण्डली मारकर बैठे रहते हैं। ऐसे कंजूस, मक्खीचूस लोग किसी और की सहायता करने के विषय में कभी सोच ही नहीं सकते।
          इसके विपरीत यह सोच भी अनुचित है कि गरीब आदमी तो बस केवल बेचारा होता है। इस संसार में रहते हुए वह अपनी भौतिक आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकता। इसलिए ऐसा असहाय व्यक्ति किसी और के लिए भला क्या कर सकता है? इस नकारात्मक सोच को अपने मन से बाहर निकल फैंकना होगा। अपनी इच्छाशक्ति को जगाना होगा।
        इस विषय में एक घटना याद आ रही है। एक आदमी गुरु नानक देव जी के पास गया। उसने बाबा जी से पूछा - 'मैं इतना गरीब क्यों हूँ?'
       गुरु नानक देव जी ने उसे कहा - 'तुम गरीब हो क्योंकि तुमने देना नहीं सीखा।'
       उस आदमी ने उत्तर दिया - 'मेरे पास तो देने के लिए कुछ भी नहीं है, मैं किसी को क्या दे सकता हूँ?'
       यह सुनकर गुरु नानक देव जी ने उसे समझाते हुए कहा - 'तुम्हारा चेहरा किसी को मुस्कान दे सकता है। तुम्हारा मुँह  किसी की प्रशंसा कर सकता है अथवा दूसरों को सुकून पहुँचाने वाले दो मीठे बोल बोल सकता है। किसी जरूरतमन्द की सहायता करने के लिए तुम्हारे हाथ आगे बढ़ सकते हैं। परन्तु फिर भी तुम कह रहे हो कि तुम्हारे पास देने के लिए कुछ भी नहीँ है।'
         वास्तव में मनुष्य की मानसिक सोच ही गरीबी का कारण होती है। मनुष्य यदि यह समझ ले कि ईश्वर ने इतना अनमोल शरीर उसे दिया है जिसका मूल्य रुपए-पैसों में नहीं आँका जा सकता। महर्षि दधीचि जैसा व्यक्ति भी कोई हो सकता है, जिन्होंने असुरों को पराजित करने के लिए अपनी हड्डियों का दान दिया था। उन हड्डियों से देवराज इन्द्र ने अपना अस्त्र वज्र बनाकर असुरों पर विजय प्राप्त की थी।
         महाभारतकाल में युद्ध के मैदान में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण की परीक्षा लेने के लिए उसके पास ब्राह्मण के रूप में गए थे। उन्होंने उससे दान देने के लिए प्रार्थना की थी कि बेटी की शादी के लिए वह दान दे। कर्ण उस समय मरणासन्न अवस्था में थे, उनके पास कुछ भी नहीं था। फिर याद दिलाए जाने पर उन्होंने अपने सोने का दाँत पत्थर से तोड़कर निकाला था और ब्राह्मण को दान में दे दिया था।
         कहने का तात्पर्य यही है कि मनुष्य तन, मन और धन किसी के भी माध्यम से दान दे सकता है। तन से श्रमदान कर सकता है। अपनी शक्ति से असहायों की रक्षा कर सकता है। मन से सबके लिए शुभकामनाएँ ईश्वर से माँग सकता है। अपने सुविचारों से सबका मन मोह सकता है। धन तो है ही दान का माध्यम जिससे मनुष्य अन्न, वस्त्र, धन आदि से दूसरों की सहायता कर सकता है। यानी किसी भी तरह से मनुष्य को ईश्वर के द्वारा बनाए गए जीवों की मदद करने से कभी पीछे नही हटना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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