शनिवार, 20 मई 2017

दान मन से दें

मनीषी कहते हैं कि अन्धेरे में छाया, बुढापे में काया और अन्त समय में माया किसी का साथ नहीं देती। इसलिए अपने हाथों से जो दान कर सको, वही अपना है। यानी जन्म-जन्मान्तरों तक वही साथ निभाता है। मालिक निस्वार्थ भाव से हमारे बिना माँगे ही हम सबकी झोलियाँ भरकर हमें मालामाल करता है। वह अपने लिए हमसे कुछ भी नहीं चाहता।
        हमारा भी दायित्व बनता है कि हम उसके बनाए जीवों के विषय में सोचें और उनके लिए कुछ करें। दान देने से किसी की कोई भी वस्तु कम नहीं होती। अपितु कई गुना बढ़कर ही उसे मिलती है। लेने वाले से देने वाला कहीं अधिक महान होता है। कहीं एक बोधकथा पढ़ी थी, जो हम में से कई लोगों ने पढ़ी होगी। उसकी चर्चा करते हैं।
         प्रतिदिन की तरह प्रात:काल एक भिखारी भीख माँगने के लिए अपने घर से निकला। यह अन्धविश्वास प्रचलित है कि भिक्षाटन के लिए निकलते समय भिखारी अपनी झोली खाली नहीं रखते। अतः चलते समय उसने अपनी झोली में मुट्ठी भर जौ के दाने डाल लिए। उसे देखकर दूसरों को लगता है कि इसे पहले से ही किसी ने कुछ दे रखा है।
        पूर्णिमा का दिन था। भिखारी सोच रहा था कि आज अगर ईश्वर की कृपा रही तो मेरी झोली शाम से पहले भर जाएगी। अचानक ही उस देश के राजा की सवारी सामने से राजपथ पर आती हुई दिखाई दी। भिखारी खुश हो गया। उसने सोचा कि राजा के दर्शन और उनसे मिलने वाले दान से आज उसकी सारी दरिद्रता दूर हो जाएगी और उसका जीवन सँवर जाएगा। जैसे-जैसे राजा की सवारी निकट आती गई, भिखारी की कल्पना और उत्तेजना बढ़ती गई। राजा ने भिखारी के निकट आकर अपना रथ रुकवाया और उतर कर उसके पास गया।
        भिखारी की तो मानो साँसें ही रुकने लगीं। राजा ने उसे कुछ भी नहीं दिया अपितु अपनी बहुमूल्य चादर उसके सामने फैलाकर उससे भीख की याचना करने लगा। भिखारी को समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करें? राजा को भिक्षा दे या नहीं, अभी वह निर्णय कर ही नही पा रहा था कि राजा ने पुनः याचना कर डाली। भिखारी ने अपनी झोली में हाथ डाला। हमेशा दूसरों से लेने वाले का मन राजा को कुछ देने के लिए मान ही नहीं रहा था। जैसे-तैसे बड़ी मुश्किल से उसने जौं के दो दाने राजा की चादर में डाल दिए।
         हालाँकि उस दिन भिखारी को अपेक्षा से अधिक भीख मिली थी लेकिन अपनी झोली से गए जौ के दो दाने देने का मलाल उसे सारा दिन रहा। शाम को उसने अपनी झोली पलटी तो उसके आश्चर्य की सीमा न रही। अपने साथ झोली में ले गए जौं में से दो दाने सोने के हो गए थे। अब उसे समझ आया कि यह दान की ही महिमा है।
        उस समय उसे बहुत पश्चाताप हुआ। वह सोचने लगा - 'काश! उसने राजा को और अधिक जौं दे दिए होते तो उसके पास बहुत से सोने के जौं होते।' परन्तु अब तो कुछ भी नहीं हो सकता था। कमान से तीर निकल चुका था। आदत से लाचार वह अपने मन को दान देने के लिए तैयार नहीं कर सका था।
        यह बोधकथा यही समझाना चाहती है कि दान देने वाले को ईश्वर कोई कमी नहीं आने देता। उसका वैभव दिन दोगुना और रात चौगुना बढ़ता है। बस अपने मन को तैयार करना होता है कि उसे सामाजिक कार्यों के लिए कुछ देना चाहिए। अर्थात समाज में जो लोग असहाय है, निर्बल हैं उनके उत्थान के प्रति उसका दायित्व है। उसका निर्वहण प्रत्येक मनुष्य को करना चाहिए।
          यथासम्भव प्रयत्न यही करना चाहिए कि अपने द्वार पर आया कोई भी याचक खाली हाथ न लौटे। पता नहीं उसकी क्या विवशता होगी जो आपके पास सहायता के लिए आया है। प्रत्येक समर्थ मनुष्य को सदा सर्वदा ईश्वर का धन्यवाद करना चाहिए कि मालिक ने उसे इतना सामर्थ्यवान बनाया है कि वह किसी के काम आ सका।
चन्द्र प्रभा सूद
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