सोमवार, 15 मई 2017

दोहरे मापदण्ड नहीं

दोहरे मापदण्ड आखिर कब तक हम सब अपनाते रहेंगे? अपने लिए जिन आदर्शों को पुरुष उचित मानता है, वही आदर्श स्त्री के लिए वर्जित क्योंकर हो जाते हैं। कोई तर्क, कोई दलील तो दी जानी चाहिए। केवल यह कह देना उचित नहीं कि मैंने कह दिया है इसलिए मेरा वचन पत्थर की लकीर है। अथवा यह स्त्री के लिए जो लक्ष्मण रेखा खींच दी है, उससे आगे निकल जाना उसके अधिकार क्षेत्र में नहीं है। यदि कभी वह उस रेखा को लाँघने का प्रयास करती है तो उस पर कुलटा होने का ठप्पा लगा दिया जाता है।
         ये मानदण्ड भी तो पुरुष ने अपनी सुविधा के लिए तय किए हैं। वह खुले आम व्यभिचार कर सकता है, जुआ खेल सकता है, नशा कर सकता है, विवाहेतर सम्बन्ध बना सकता है, अपनी पत्नी को प्रताड़ित कर सकता है, मनमर्जी करने की उसे छूट है, घर-परिवार और बच्चों की जिम्मेदारी से भाग सकता है। ये सब अपराध करने का अधिकार उसे किसने दिया है? वह तो बस स्वयं ही स्वयंभू बना बैठा है।
         अब यहाँ प्रश्न यह उठता है कि पुरुष का शराब पीना, जुआ खेलना, विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाना, अपने दायित्वों से मुँह चुराकर भागना, नशा करना आदि यदि उचित हैं तो फिर स्त्री के लिए ये सब करना अनुचित कैसे हैं? उसे वह गुलाम बनाकर क्यों रखना चाहता है? उसका अपना एक स्वतन्त्र अस्तित्व क्यों नहीं हो साकता?
         मैं यहाँ स्त्री की पक्षधर बनकर आप सबसे प्रश्न नहीं कर रही अपितु अपने मन में उठते हुए, धधकते से ज्वलन्त प्रश्नों का समाधान ढूँढने का प्रयास कर रही हूँ। मैं यह भी नहीं कह रही कि नारी मुक्ति के लिए उसे हर रूढ़ि को तोड़कर ही आगे बढ़ना चाहिए अथवा उसे हर वह कार्य अवश्य ही जिद्द बनाकर कर लेना चाहिए जिनके लिए उस पर प्रतिबन्ध लगाए गए हैं। अपनी सीमाओं में रहकर ही स्त्री को आगे बढ़ना चाहिए।
       आज इक्कीसवीं सदी में विज्ञान ग्रह-नक्षत्रों तक पहुँच गया है। मनुष्य इण्टरनेट, वाट्सअप आदि के माध्यम से दुनिया को मुट्ठी में कर रहा है, किन्तु स्त्री और पुरुष एक-दूसरे पर लानत-मलानत करने और छींटाकशी करने से बाज नहीं आ रहे। झूठे अहं की लड़ाई में कोई भी पिछड़ना नहीं चाहता, एक-दूसरे से स्वयं को सवाया सिद्ध करने की होड़ दोनों में बराबर चलती जा रही है।
       पुरुष नारी को उसके अधिकारों को लेने देना नहीं चाहता, उसे वञ्चित रखना चाहता है। आधुनिक नारी है कि वह अपने हक को जबरदस्ती छीन लेना चाहती है। इसलिए जब तक उसे अपना मनचाहा नहीं मिल जाता, तब तक वह अपने हक की लड़ाई लड़ते रहना चाहती है। वह और अधिक पिछड़ना नहीं चाहती। इस संघर्ष का अन्त कभी होगा भी या नहीं, कह नहीं सकते।
         आजकल स्त्रियाँ पुरुषों के साथ राजनीति, खेल, नौकरी, व्यापर हर क्षेत्र में कन्धे-से-कन्धा मिलाकर चल रही हैं। कार्यक्षेत्र में पुरुष बॉस हो तो स्त्री को कोई समस्या नहीं होती। इसके विपरीत यदि स्त्री बॉस हो तो पुरुषों के गले से यह  बात उतर नहीं पाती। फिर भी स्त्री को दोयम मानकर पुरुष अपने अहं की तुष्टि करता है तथा उसका अपमान करने का कोई अवसर नहीँ छोड़ता।
        'हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता' की तरह अधिकारों की यह लड़ाई न जाने कब से चलती आ रही है और न जाने कब तक चलती रहेगी? मेरा यही मानना है कि आपसी उलझाव में घर-परिवार को अनदेखा नहीं करना चाहिए। दोनों ही पक्षों को अपने-अपने दायित्वों से मुँह नहीं मोड़ना चाहिए। इसमें सबसे अधिक हानि उन बच्चों को पहुँचती है जिसे वे दोनों ही अपने जिगर का टुकड़ा कहते हैं।
        हमारे महान ग्रन्थ स्त्री और पुरुष दोनों को सामान महत्त्व देते हैं। इसीलिए किसी भी धार्मिक अनुष्ठान में दोनों की ही उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है। पश्चातवर्ती तथाकथित विद्वानों ने दोनों के मध्य ऐसी कटुता को जन्म दिया है जिसे हल करना सरल नहीं बहुत कठिन है। खैर, मिलजुलकर आपसी प्यार, विश्वास और समझबूझ की दोनों से ही अपेक्षा है।
चन्द्र प्रभा सूद
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