मंगलवार, 23 मई 2017

ईश्वर के प्रति कृतज्ञ बनें

दिन-रात, सोते-जागते, उठते-बैठते हर समय मनुष्य को परमपिता परमात्मा का धन्यवाद करते रहना चाहिए। एक वही ऐसा है जो सबकी झोलियाँ खजानों से भरता है। हम मनुष्यों की भाँति कभी किसी पर अहसान भी नहीं करता। इसलिए ऐसी प्रार्थना करना हर मनुष्य का दायित्व है - 'हे ईश्वर! तुम्हारा धन्यवाद', 'ईश्वर तुम महान हो' या 'ईश्वर! मेरी मदद करो'। इस तरह कृतज्ञता ज्ञापन करने से मनुष्य के मन का अहं भाव दूर होने लगता है।
         दूसरे शब्दों में कहें तो उस समय मनुष्य अपने सभी कर्म उस प्रभु को मन से सौंपने के लिए तैयार हो रहा होता है। इस प्रकार के आचरण से मनुष्य के मन से कर्तापन का भाव दूर होने लगता है। यहाँ से उसके अंत:करण का शुद्धिकरण होने लगता है। तब धीरे-धीरे वह ईश्वर के और और अधिक समीप होकर उसका प्रिय बनने लगता है।
         इस भौतिक संसार में कोई व्यक्ति, किसी भी रूप में हमारी सहायता करता है तो उसे हम धन्यवाद, शुक्रिया या थैंक्स कहते नहीं अघाते। दिन में न जाने कितनी बार अपना आभार व्यक्त करते हैं। इसका सीधा-सा यही अर्थ है कि अपने लिए किए गए किसी के उपकार के बदले यदि आभार व्यक्त न किया जाए तो दूसरे लोग घमण्डी समझकर अवहेलना करने लगते हैं। लोग उसकी बुराई करने से नहीं चूकते।
       इसके विपरीत यदि हमारे द्वारा किए गए उपकार के बदले कोई हमारा आभार व्यक्त नहीँ करता तो हमें बहुत क्रोध आता है। उसे हम कोसते हैं या लानत-मलानत करते हैं। उसे असभ्य होने का तमगा भी दे देते हैं। उसकी बुराई करके हम अपने मन को शान्त करने का भरसक प्रयास करते हैं। भविष्य में किसी की सहायता न करने का बचकाना प्रण भी कर लेते हैं।
         अब विचार इस विषय पर करना है कि वह परमपिता परमात्मा हम मनुष्यों की हर कदम पर सहायता करता है। हमारी सारी आवश्यकताओं का ध्यान रखता है। किस समय हमें किस वस्तु की जरूरत होगी, उसी के अनुसार हमारे बिना कहे उपलब्ध करवा देता है। समय और परिस्थितियों के अनुसार उसमें कभी-कभी उसमें विलम्ब भी हो सकता है। यह देरी हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार होती है। इसके लिए हम उस मालिक को किसी भी तरह दोष नहीँ दे सकते।
        यदि किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर हम धन्यवाद देते हैं तो वह चीज बढ़ती रहती है। अगर धन अथवा वैभव के लिए हम धन्यवाद करते हैं तो समृद्धि बढ़ती है। यदि मनुष्य अपना प्रेम बढ़ाने के लिए धन्यवाद देता है तो निस्सन्देह उसका प्रेम परवान चढ़ने लगता है। ज्ञान देने वाले गुरु को यदि धन्यवाद करते हैं कि उसने ज्ञान देकर हम पर महान उपकार किया है। तब विनम्र हुआ व्यक्ति निश्चित ही ज्ञानवान बनता है। अपने जीवन में योग्य बनकर एक सफल इन्सान कहलाता है।
          जो लोग अपने चारों ओर चापलूसों की फौज तैयार कर लेते हैं और उनके स्वार्थवश झूठे प्रशस्ति गीतों को सुनकर स्वयं को भगवान से भी महान समझने की भूल करने लगते हैं। ऐसे लोग आजन्म झूठ का मुलम्मा चढ़ाकर जीते हैं और फिर उसी तरह सत्य से अनजान रहकर इस संसार से विदा हो जाते हैं। इस असत्य यशोगान सुनने से मनुष्य को यथासम्भव बचने का प्रयास करना चाहिए।
        ईश्वर ने हमें इस संसार में जन्म देकर और सारे भौतिक सुख प्रदान करके बहुत उपकार किया है। इस अहसान के लिए उसका धन्यवाद देना हमारा कर्त्तव्य बनता है। अन्यथा लोग हमें भी कृतघ्न  कहेंगे। वह मालिक भी सोचेगा कि मेरी सन्तान ये जीव कैसे कृतघ्न हैं जो स्वयं पर परोपकार करने वाले को किसी श्रेणी में ही नहीं गिनते। इस अपरिहार्य स्थिति से स्वयं को बचाने के लिए कृतघ्न न होकर कृतज्ञ बनना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें