गुरुवार, 18 जनवरी 2018

बत्तीस दाँतों में जीभ

बत्तीस दाँतों के बीच हमारी जीभ सुरक्षित रहती है। इसका कारण है कि दाँत कठोर होते हैं। जब निकलते हैं तो भी परेशान करते हैं और जब हमसे विदा लेते हैं तब भी कष्ट देते हैं। कितनी ही कठोर वस्तु क्यों न हो उसे ये दाँत पल भर में चूरा कर देते हैं। इसी कठोरता के कारण सुख के साथ-साथ दुख का कारण भी बनते हैं। अपने इस कठोर व्यवहार के कारण ये किसी प्रकार का समझौता नहीं कर पाते। तभी आयुपर्यन्त साथ नहीं निभाते बल्कि बीच में ही साथ छोड़कर विदा ले लेते हैं।
         ये सदा ही अकड़कर रहते हैं झुकना इनका स्वभाव नहीं। यह तो ईश्वरीय नियम है कि किसी का भी घमंड स्वीकार्य नहीं होता। महाविद्वान रावण का अहंकार हो या भगवान कृष्ण के मामा कंस हो या अपने को स्वयंभू भगवान कहने वाले हिरण्यकश्यप का अहम हो सभी नष्ट हो जाते हैं। इतिहास साक्षी है कि बड़े-बड़े साम्राज्य तक अपनी गर्वोक्तियों के कारण नष्ट हो गए।
       मुँह में रहने वाली जीभ लचकदार है इसीलिए समझौता कर लेती और मृत्यु तक साथ निभाती है। यह है तो पर चमड़े की जो समय-असमय फिसल ही जाती है जिसका खामियाजा मनुष्य को कभी-कभी तो आयुपर्यन्त भुगतना पड़ता है। इसका प्रत्यक्ष उदाहरण हमारे सामने है महाभारत का युद्ध है। द्रौपदी यदि दुर्योधन को कठोर शब्दों से आहत न करती तो शायद उस महाविनाश से बचा जा सकता था जिसका नुकसान हमारा देश शताब्दियों बाद भी आज तक भुगत रहा है।
         इसीलिए हमारे बड़े-बजुर्ग कहा करते हैं- 'यह जीभ राज कराती है नहीं तो मिट्टी में मिला देती है।' मुझे यह सब बताने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि आप सभी  सुधी जन जानते हैं कि इतिहास भरा पड़ा है ऐसे उदाहरणों से।
        यह जीभ बड़ी ही चटोरी है। यह ऐसी इन्द्रिय है जिसको वश में करना आवश्यक है।
          जब तब हमें स्वादिष्ट व्यंजनों के लिए ललचाती रहती है।  जहाँ चटपटा देखा इसकी लार टपकने लगती है। इसकी इस आदत के कारण बहुधा मनुष्य को मुसीबत का सामना करना पड़ता है। आप कहेंगे यह कैसे? इसके उत्तर में यही कह सकती हूँ कि हर खाद्य पदार्थ हर व्यक्ति को सूट नहीं करता। कई अपरिहार्य कारणों से हमें किन्हीं खाद्यान्नों को खाने के लिए डाक्टर मना करते हैं पर यह हमारी जीभ माने तब न। हमें ललचाती रहती है और हम उन को खाकर और अधिक बीमार व लाचार हो जाते हैं। जब रोग बढ़ता है तब पछताते हैं कि काश समय रहते गलत खानपान से परहेज करते तो स्वस्थ रहते। डाक्टरों के पास जाकर पैसा व समय बरबाद न करते।
         सादा भोजन खाने के बजाय चटपटा भोजन चटखारे ले-लेकर खाना इसका स्वभाव है। इसका चटोरापन शांत करने के लिए मनुष्य अथक प्रयास करता है। सारे पाप-पुण्य इसी के कारण करता रहता है। चोरी-डकैती, भ्रष्टाचार, कालाबाजारी, किसी का गला काटना आदि काटने मनुष्य स्वयं को रोक नहीं पाता जिनका अंत विनाशकारी होता है।
       हमें यथासंभव दाँतों की तरह कठोर न बनकर फलदार वृक्ष की तरह झुकने की प्रवृत्ति वाला बनना चाहिए तभी अधिक समय तक सरवाइव कर सकते हैं। जीभ की तरह नरम व लचीला होना चाहिए ताकि जीवन भर साथ निभा सके परंतु उसकी तरह लालची या स्वाद का गुलाम नहीं बनना चाहिए जिससे जीवन में अनचाहे ही दुखों-परेशानियों को बुलावा(न्यौता) दे दिया जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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