शुक्रवार, 19 जनवरी 2018

प्रकृति माँ की गोद

प्रकृति से मनुष्य का अटूट रिश्ता है। प्रकृति को हम माँ कहते हैं। हम जितना प्रकृति से दूर हो रहे हैं उतना ही कष्ट पा रहे हैं। सुनने में बड़ा अजीब लग रहा है पर वास्तविकता यही है। हम सभी दिन प्रतिदिन कृत्रिम जीवन जी रहे हैं।
       हमारे आचार-व्यवहार में बनावटीपन आ रहा है। हमें इस बात का पता ही नहीं चला कि हम कब इस ओर बढ़ गए?
       कामकाज की आपाधापी में हम स्वयं मशीन बनते जा रहे हैं। ऐसा लगता है हमारे पास फुर्सत के पल मानो बचते ही नहीं हैं। यह ठीक भी है। यदि आराम की ओर ध्यान देंगे तो जीवन की रेस में पिछड़ जाएंगे।
        हमें पुस्तकों और बड़े-बजुर्गों ने यही सिखाया था कि- early to bed and early to rise makes a man healthy, wealthy and wise. पर आज हम इस सत्य को भूल चुके हैं। इसका कारण है हमारी दिनचर्चा में बदलाव।
       हम रात देर से सोते हैं और प्रातः उसी तरह देरी से जाग कर उठते हैं। स्कूलों में काम करने वालों की बात नहीं कर रही। आज हम शादी-ब्याह, पार्टियों, कलबों से देर रात लौटते हैं तो प्रात: जल्दी उठना नहीं हो पाता। हमारे सभी कार्यक्रम देर रात ही सम्पन्न होते हैं।
     नौकरी या व्यापार में भी कोई समय सीमा नहीं रहती। परिणाम हमें अपने स्वास्थ्य की कीमत से चुकाना पड़ता है। नित नयी बिमारियाँ हमें जकड़ लेती हैं। उनसे छुटकारा पाने के लिये डाक्टरों व अस्पतालों की जेब भरनी पड़ती है। आखिर इलाज वही होता है- सैर करो, योगासन करो, भोजन नियम से निश्चित समय पर करो, छुट्टी लेकर किसी हिल स्टेशन पर कुछ दिन बिताओ आदि।
        इसका सीधा-सा अर्थ है प्रकृति के समीप जाओ। अपना ध्यान स्वयं रखो। जब अपने स्वास्थ्य व पैसे को गंवा कर हमें फिर प्रकृति की ओर लौटना ही है तो समय रहते हम क्यों न चेत जाएँ, वह हमारे लिए बहुत अच्छा रहेगा।
        प्रकृति माता की गोद में जाने से हमें निराशा नहीं उत्साह मिलेगा। हम जीवन जीने की नई ऊर्जा प्राप्त करेंगे। तो आओ आज से हम प्रकृति के पास जाने और उसे हानि न पहुँचाने का अपने मन में संकल्प करें तथा दूसरों को भी समझाएँ।
चन्द्र प्रभा सूद
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