मंगलवार, 30 जनवरी 2018

गुलाब की निराशा

सामने देखा मैनें
कोने में पड़ा हुआ
उदास-सा, निस्तेज गुलाब
अपना सिर झुकाए मानो कुछ सोच रहा था।

कभी खिला वह
तब कहलाता था
सर्वप्रिय गुलाब का फूल
बन जाता था सबकी नजरों का आकर्षण।

लोग बहुत हर्षाते थे
बार-बार मेरी खुशबू को
सूँघते हुए वे नहीं अघाते थे
मुझे हाथ में लेकर यूँ ही इतराते फिरते थे।

शुभकार्य हेतु उन्हें
मेरी जरूरत होती थी
मुझे उपहार में दे देना
मानो उनका स्टेटस सिम्बल बन जाता था।

देवता के चरणों
पर चढ़ाकर होते थे
तृप्त सब जन एक दिन
मनोकामना पूर्ण होने की आस होती थी।

मैं सदा रहा अपना
मस्तक ऊँचा जग में
सोचता रहा कि मेरे जैसा
संसार में कोई नहीं आकर्षक, मनमोहक।

पर मैं मूर्ख मानी
दम्भी बनकर बैठा
बस अपने इस मान पर
इतराता रहा, बल्लियों उछलता रह गया।

अब मुझ मलिन
को कोई नहीं देखता
सारा भ्रम टूट गया मेरा
अब कोई आशा नहीं बची है जीवन की।

भूल गया था
जीवन का यह सत्य
जो आया है सो जाएगा
आज मेरा भी जाने का समय आ गया है।
चन्द्र प्रभा सूद
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