शनिवार, 20 जनवरी 2018

धन और बिमारी

बिमारी खरगोश की तरह आती है और कछुए की तरह जाती है। धन कछुए की तरह आता है और खरगोश की तरह जाता है। इन पंक्तियों को पढ़कर मेरा इस विषय पर कुछ लिखने का मन हुआ। सो मैं यह आलेख लिख रही हूँ।
           यह अक्षरश: सत्य है कि बीमारी और दुख-कष्ट बिन मौसम बरसात की तरह चले आते हैँ। आते समय तो खरगोश जैसी तेजी से आकर मनुष्य को अनायास ही घेर लेते हैं और दिन-रात परेशान करते हैं। तब हम चाहते हैं कि जिस फुर्ती से वे आए हैं उसी तरह पलक झपकते ही वे चले जाएँ। ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि वे तो मटकते-मटकते कछुए की-सी चाल चलते हुए और हमारे धैर्य की परीक्षा लेकर ही वापिस लौटते हैं।
          बिमारी, कष्ट, दुख और परेशानियाँ हमारे इस भौतिक जीवन का ही हिस्सा हैं। चाहे-अनचाहे हर स्थिति में हर मनुष्य को इन्हें भोगना पड़ता है। यहाँ उसकी इच्छा नहीं पूछी जाती। पूर्वजन्म कृत कर्मों के ही अनुसार उसे बस केवल अपने भोगों को भोगकर उनसे मुक्त होना होता है। जब इन कुकर्मों को स्वेच्छा से प्रसन्नता पूर्वक हम करते हैं तो उनका दुष्परिणाम भी तो हमें अकेले को ही भोगना होता है।
           सृष्टि का यह अटल नियम है कि जैसे हम बोते हैं वैसा ही काटते हैं। इसी तरह हमने अपने कर्मों की जैसी भी फसल पूर्व जन्मों में बोयी थी वैसी ही तो काटनी पड़ेगी। यानि उसी हिसाब से ये बिमारी, कष्ट और परेशानी हमें भोगकर ही काटने होंगे। इन सबसे बचना असम्भव ही नहीं नामुमकिन है। फिर रोते-झींकते भोगेंगे तो भी ठीक है और फिर यदि हंसते हुए उस ईश्वरीय इच्छा के आगे अपना सिर झुका देंगे तो मन की पीड़ा कुछ हद तक कम हो जाएगी।
         बिमारी-हारी और कष्ट-परेशानी ने जितना समय हमें नचाना है वे तो अपना नाच नचाएँगी ही। अब उसके लिए समय की कोई सीमा तय नहीं की जा सकती। ये सब हमारे अपने भोगों का खट्टा, तीखा व कटु भोग है जो समयानुसार हमें मिल रहा है।
          अब हम धन की बात करते हैं। सारा जीवन मनुष्य पापड़ बेलता रहता है। झूठ-सच, छल-फरेब सब करता है। वह चोरी करने और डाका डालने तक से परहेज नहीं करता। रिश्वतखोर, भ्रष्टाचारी तक बन जाता है। दिन-रात कोल्हू के बैल की तरह परिश्रम करता है तब जाकर अपना व घर-परिवार का पोषण कर पाता है।
          कहते हैं पानी की एक-एक बूँद के डलते रहने से मटका भरता है उसी प्रकार पैसा-पैसा करके धन को जोड़ा जाता है। अर्थात कछुए की तरह मन्थर गति से या सुस्त चाल से चलते हुए सालों-साल लग जाते है उसे अपने लिए पर्याप्त धन एकत्रित करने में।
         खून-पसीने से कमाए हुए धन में यदि सेंध लग जाए अर्थात् मनुष्य को या उसकी सन्तान, किसी को भी नशे, रेस आदि की बुरी लत लग जाए तो इन कुटेवों से धन की बरबादी खरगोश की चाल से होने लगती है। उसके खजाने में बड़े-बड़े छेद हो जाते है जो उसे सड़क तक पर भी लाकर खड़ा कर देते हैं।
          अपने पूर्व जन्मों में किए गए सत्कर्मों अथवा कुकर्मो की कुण्डली हम नहीं बना सकते पर अपने वर्तमान में ऐसा प्रयास हमें अवश्य करना चाहिए कि खरगोश की तरह भागकर आए दुख हमें न दबोचने पाएँ। उनके कछुए की तरह जाने की भी हमें कभी प्रतीक्षा न करनी पड़े।
         इसी प्रकार एक-एक पैसा करके कछुए की चाल की तरह जोड़े धन में कोई ऐसा छेद न होने पाए कि वह खरगोश की चाल से भागता हुआ हमें मुँह चिढ़ाता हुआ हमसे दूर चला जाए।
चन्द्र प्रभा सूद
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