बुधवार, 24 जनवरी 2018

आत्मा का स्वरूप

प्रत्येक जीव के शरीर में आत्मा विद्यमान रहती है। भारतीय दर्शन यह मानता है कि आत्मा उस परमपिता परमात्मा का एक अंश मात्र है। अंतर इतना ही है कि ईश्वर केवल द्रष्टा मात्र है और उसका अंश आत्मा संसार में रहते हुए अपने कर्मानुसार मीठे-कड़वे फलों का भोग करता है। ऋग्वेद में कहा है कि ईश्वर ने सोचा 'बहु स्याम' यानी मैं बहुत हो जाऊँ। उस समय उसने स्वयं के कई अंश(आत्माएँ) बनाकर सृष्टि की रचना की।
        प्रायः हर मनुष्य के मन में आत्मा के विषय में कुछ प्रश्न बादलों की तरह उमड़ते-घुमड़ते रहते हैं। वे हैं- आत्मा क्या है? उसका आकार कैसा होता है? क्या वह दिखाई देती है? वह जीव के शरीर में किस स्थान पर रहती है? शरीर में उसकी स्थिति कैसी होती है? क्या वह पूरे शरीर में फैलकर रहती है?
        आत्मा के विषय में भरतीय दर्शन की सोच बिल्कुल स्पष्ट है। कठोपनिषद में आत्मा के स्वरूप के विषय में कहा है-
          अंगुष्ठमात्र:  पुरुषो, मध्ये  आत्मनि  तिष्ठति।
          विश्व ईशानो भूतभव्यस्य न तेता विजुगुप्सते॥
अर्थात अंगुष्ठमात्रा के परिमाण वाली, आत्मा, शरीर के मध्य भाग अर्थात हृदयाकाश में स्थित है, जो भूत, भविष्य और वर्तमान पर शासन करने वाली है। उसे जान लेने के बाद जिज्ञासु-मनुष्य किसी की निन्दा नहीं करता। यही वह परमतत्व है। 
         आत्मा के स्वरूप के विषय में अपने ग्रंथों का सहारा लेते हैं। अभी ऊपर कहा है कि आत्मा उस परमपिता परमात्मा का अंश है। हमारी उपनिषदें मानती हैं कि आत्मा एक सुई की नोक के करोड़वें हिस्से से भी अत्यन्त सूक्ष्म होती है और किसी को इन भौतिक चक्षुओं से दिखाई नहीं देती। कठोपनिषद के अनुसार वह शरीर में हृदय देश में रहती है। वहीं से वह अपने सूक्ष्म शरीर के द्वारा स्थूल शरीर का संचालन करती है। आत्मा पूरे शरीर में फैलकर नहीं रहती अथवा कह सकते हैं कि यह व्याप्त नहीं होती।
         आत्मा एक छोटे-से कीट-पतंगे से लेकर बड़े-बड़े जीव-जन्तुओं में रहती है। दूसरे शब्दों में कहें तो सूक्ष्मदर्शक यन्त्र से देखे जाने वाले सूक्ष्म जीवाणुओं से लेकर हाथी या जिराफ जैसे विशालकाय पशुओं के शरीरों में इस आत्मा का निवास होता है। मनुष्य बालरूप में जन्म लेता है और फिर बड़ा होता है। मनुष्य की तरह आत्मा के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि कतर-ब्यौन्त करके आत्मा को उन शरीरों में फिट कर दिया जाता है। शरीर का आकार-प्रकार कैसा भी हो आत्मा का उसमें निवास होता ही है।
          आत्मा हर अवस्था में एक समान रहती है। उस पर किसी परिस्थिति का कोई प्रभाव नहीं पड़ता। सभी कर्मों का भोग आत्मा के शरीर को करना पड़ता है। वही नष्ट होता है, काटता है। उस पर सर्दी-गर्मी, सुख-दुख आदि का प्रभाव पड़ता है। श्रीमद्भागवद् गीता का एक श्लोक स्मरण आ रहा है, जिसमें भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं-
           नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावक:।
           न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुत:।।
अर्थात इस आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि जला सकती है, न इसे जल गिला कर सकता है और न ही वायु इसे सुखा सकती है।
कहने का तात्पर्य है कि ये सभी कर्म आत्मा के नहीं है, उसके धारण किए हुए शरीर के होते हैं। आत्मा जीव के भौतिक शरीर में निर्लिप्त भाव से विद्यमान रहती है।
          प्रत्येक जीव में रहने वाली आत्मा के स्वरूप में कोई परिवर्तन नहीं होता, वह अपने अपरिवर्तनीय रूप में ही विद्यमान रहती है। उसे इन चर्म चक्षुओं से नहीं देखा जा सकता। जिस भी व्यक्ति ने इसके विषय में जान और समझ लिया उसे कुछ और जानने की आवश्यकता नहीं रह जाती। वह वीतरागी ईश्वर के अत्यन्त समीप हो जाता है। वह इस संसार में रहते हुए अपने समस्त दायित्वों का निर्वहण करता हुआ उनमें लिप्त नहीं होता।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें