मंगलवार, 15 मई 2018

मौत को देखना

जब कभी कोई गम्भीर दुर्घटना होती है अथवा दुस्साध्य रोग हो जाता है, उस समय मनुष्य के जीवित बचने की कोई आशा नहीं होती। तब मनुष्य स्वयं या उसके परिवारी जन कहते हैं कि कोई चमत्कार हो जाए और उनका प्रियजन पूर्णतः स्वस्थ होकर अपने घर लौट आए। ऐसे में जब मनुष्य स्वस्थ हो जाता है तो वह ईश्वर का सच्चे मन से धन्यवाद करता है कि उसने अपना हाथ रखकर उसे बचा लिया। उसके बाद दुनिया के कार्य-व्यवहार में लिप्त होता हुआ मनुष्य फिर उस परमपिता परमात्मा से दूर होने लगता है। अन्ततः धीरे-धीरे वह उसे विस्मृत कर देता है।
         मनुष्य बहुत नादान है जो मैं वास्तविकता से दूर रहता है। कल्पना कीजिए यदि मनुष्य को अपनी मौत का मंजर करीब से देखने को मिल जाए तो उसका अनुभव कैसा होगा?
         कफन में लिपटा हुआ उसे अपना शरीर दिखाई देगा जिसे शीघ्र ही जला दिया जाएगा। घर-परिवार के तथा बन्धु-बान्धव जितना जल्दी हो सके घर से बाहर ले जाने के लिए उतावले हो रहे होते हैं। उस समय सभी लोग उसकी अच्छाइयों को याद करके रो रहे होते हैं। वास्तव में वे अपने स्वार्थ के कारण रोते हैं। उस समय उसके बारे में अच्छी बातें कही जाती हैं। भाई-बान्धवों के मन में मृतक के साथ समय न बिता पाने का मलाल होता है।
          हमारी भरतीय संस्कृति में ऐसी मान्यता है कि मृत्यु के पश्चात मनुष्य के सारे गुनाह माफ कर दिए जाते हैं। पर मरने वाले को तो इसका पता भी नहीं चलता। मनुष्य सोचता है कि जब उसकी मृत्यु होगी नाते-रिश्तेदारो सब मृत शरीर से मिलने आएँगे। उस समय उसे पता भी नही चलता कि कौन आया है और कौन नहीं? वह यदि आवाज करके कुछ कहना चाहे तो उसकी आवाज को कोई सुन ही नहीं सकता, क्योंकि वह इस दुनिया से सबको विदा का गया होता है। सब लोग लोग हाथ बाँधे एक कतार में खड़े दिखाई देते हैं। उनमें से कुछ परेशान होते हैं और कुछ उदास होते हैं। कुछ लोग वहाँ अपनी मुस्कान छुपा रहे होंगे।
            मृतक के लिए दो मिनट शोक प्रकट करने के बाद लोग राजनीति, शेयर बाजार, व्यवसाय आदि के विषय में चर्चा कर रहे होते हैं। उसके मृत शरीर सामने पड़े होने के बावजूद लोग चाय नाश्ता कर रहे होते हैं, खाना खा रहे होते हैं। यह सब किसी पिकनिक जैसा प्रतीत होता है। उसे जलाकर आते हैं तो हलवा-पूरी तक खाते हैं। वाह रे! क्या शोक मनाया जा रहा है प्रियजन के बिछुड़ने का?
         श्मशान घाट में जाकर लोगों के मन में क्षणिक वैराग्य उत्पन्न हो जाता है। जितना समय वहाँ रुकते हैं, संसार की असारता पर चर्चा होती है। यानी कोई अपना नहीं है, जिनके लिए सारी आयु मनुष्य करता रहता है, वही उसके अपने नहीं रह जाते। बस श्मशान तक का ही मनुष्य के भाई-बन्धुओं का साथ होता है। मृत शरीर को जलाने के बाद सब चले जाते हैं। कोई पीछे मुड़कर यह भी नहीं देखता कि शव जला भी की नहीं। वहाँ से बाहर निकलता ही सारा वैराग्य छूमन्तर हो जाता है। लोग अपने काम-धन्धो में व्यस्त हो जाते हैं।
            उस समय यदि कोई हाथ बढा कर हाथ थामता है तो उसका चेहरा देखकर हैरान हो जाना पड़ता है। उस जीव का हाथ थामने वाला कोई इन्सान नहीं होता अपितु वह सबका जन्मदाता परमेश्वर होता है। आश्चर्य से उसकी तरफ देखने पर वह हँसकर कह देता है कि तूने हर दिन दो घडी जो मेरा नाम जपा था। आज उसका कर्ज चुकाने के लिए आया हूँ।
           उस समय मनुष्य को अपनी मूर्खताओं पर यह सोचकर दुख होता है कि जिसे दो घडी याद किया वह बचाने के लिए आ गया है। पर जिनके लिए जीवनभर पापड़ बेले, हाड़ तोड़ परिश्रम किया, दिन-रात एक कर दिया, वही मिलकर शमशान पहुँचाने के लिए आ जाते हैं। मरणोपरान्त यदि यह पश्चाताप हुआ कि ईश्वर का स्मरण जीवनकाल में क्यों नहीं किया तो व्यर्थ है। जब तक जीवन है, जब तक प्राण शरीर में विद्यमान हैं, तब तक प्रभु का स्मरण कर लेना चाहिए। वही मनुष्य का एकमात्र सहारा है, जिसका दामन थामने पर उसे कभी पछताना नहीं पड़ता।
चन्द्र प्रभा सूद
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