शुक्रवार, 18 मई 2018

पापकर्म से पुण्यकर्म नष्ट

हर मनुष्य अपनी बुद्धि के अनुसार अच्छा कार्य करने का ही प्रयास करता है। वह अपने उद्देश्य में कितना खरा उतरता है, इसकी कोई कसौटी नहीं है। यह जानना और समझना किसी के वश की बात नहीं है। पर इतना अवश्य कह सकते हैं कि मनीषियों ने जो इस विषय में बताया है, वह सत्य है। मन, वचन और कर्म से घर-परिवार, देश, धर्म और समाज के नियमों का पालन करना, सदा पुण्यकारी होता है। इसके विपरीत किया गया कोई भी आचरण पाप का ही रूप होता है।       
         एक कथा आती है कि महाभारत के युद्ध  के उपरान्त जब भगवान श्रीकृष्ण जब अपने महल में लौटे तो रोष में भरी रुक्मिणी जी ने उनसे पूछा, "बाकी सब तो ठीक था किन्तु आपने द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह जैसे धर्मपरायण लोगों के वध में क्यों साथ दिया?"
श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, "ये सही है कि उन दोनों ने जीवन पर्यन्त धर्म का पालन किया किन्तु उनके किए एक पाप ने उनके सारे पुण्यों को हर लिया।"
रुक्मिणी जी ने पूछा, "वह कौन-सा पाप था?"
श्रीकृष्ण ने कहा, "जब भरी सभा में द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था तब ये दोनों वहाँ उपस्थित थे। बड़े होने के नाते ये दुश्शासन को आज्ञा दे सकते थे किन्तु इन्होंने ऐसा नहीं किया। उनका यह एक पाप उनकी धर्मनिष्ठता पर भारी पड़ गया।"
रुक्मिणी जी ने पूछा, "और कर्ण? वह अपनी दानवीरता के लिए प्रसिद्ध था। कोई भी उसके द्वार से खाली हाथ नहीं लौटता था, उसकी क्या गलती थी?"
श्रीकृष्ण ने कहा, "वह अपनी दानवीरता के लिए विख्यात था और उसने कभी किसी को न नहीं कहा, किन्तु जब अभिमन्यु सभी युद्धवीरों को धूल चटाने के बाद युद्धक्षेत्र में धरती पर आहत हुआ पड़ा था तो उसने पास खड़े कर्ण से पानी माँगा था। कर्ण जहाँ खड़ा था उसके पास पानी का एक गड्ढा था किन्तु कर्ण ने मरते हुए अभिमन्यु को पानी नहीं दिया। इसलिए उसका जीवन भर दानवीरता से कमाया हुआ पुण्य पलभर में नष्ट हो गया। बाद में उसी गड्ढे में उसके रथ का पहिया फँस गया और वो मारा गया।"
         इस कथा के माध्यम से यह समझने का प्रयास किया गया है कि मनुष्य को अपने दायित्व का ईमानदारी से पालन करना चाहिए। उसे अनदेखा करने से पुण्यकर्मों का क्षय होता है। हमारे आसपास प्रायः कुछ भी उचित-अनुचित घटित होता रहता है, हम संवेदनहीन मूक दर्शक बने देखते रहते हैं, कुछ करते नहीं। दूसरों के झमेलों से हम स्वयं को बचाने के लिए अनेक तर्क गढ़ लेते हैं। किसी की सहायता करने की स्थिति में होने पर भी, कुछ न करने से हम भी उस पाप के उतने ही भागीदार बन जाते हैं। उस समय हम भूल जाते हैं कि जब कभी ऐसे ही समय का कल हमें सामना करना पड़ेगा तो हमारा हाथ थामने के लिए कौन आगे निकलकर आएगा?
         मनीषी कहते हैं अत्याचार करने वाले से सहने वाला अधिक दोषी होता है। यदि स्त्री, बुजुर्ग, निर्दोष, असहाय या किसी बच्चे पर होते हुए अत्याचार को देखना और कुछ न करना भी हमें पाप का भागी बना देता है। सरकार कितना भी कह ले कि सड़क दुर्घटना में घायल हुए व्यक्ति को अस्पताल पहुँचाने पर कोई परेशानी नहीं होगी। फिर भी पुलिस या कानून के चक्कर में फँसने के डर से लोग सहायता नहीं करते। इस तरह अधर्म का एक क्षण सारे जीवन के कमाए हुए सारे धर्म को नष्ट कर सकता है।
           यह तो निश्चित है कि पुण्याचरण का फल सुखद होता है और पापाचरण का फल विनाशकारी होता है। यथासम्भव पुण्यकर्मों की ओर मनुष्य को प्रवृत्त होना चाहिए। पापकर्मों की ओर से उदासीन हो जाना चाहिए। न जाने कौन-सा पुण्यकर्म हमें इस संसार से मुक्ति की तरफ ले जाए और पापकर्म हमारे पुण्यों को भी नष्ट करके हमें रसातल में धकेल दे।       
चन्द्र प्रभा सूद
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