गुरुवार, 31 मई 2018

आवेश में आना

हम मनुष्य तनिक-सा आहत हो जाने पर शीघ्र ही आवेश में आ जाते हैं। अपने सामने वाले को सबक सिखाने के लिए इस कदर जोश में आ जाते हैं कि अपने होश तक खो देते हैं। इस चक्कर में हम स्वयं को पहले से और अधिक नुकसान पहुँचा देते हैं। जिस समय मन में क्रोध का आवेश होता है, उस समय क्रोध उसकी सोचने-समझने की शक्ति यानी उसके विवेक का हरण कर लेता है। जब वह बदला ले लेता है तब कहीं जाकर उसका क्रोध शान्त हो जाता है और वह स्वयं को हल्का महसूस करने लगता है।
           उस समय मनुष्य को ज्ञात होता है कि उसने कितनी बड़ी मूर्खता कर डाली है। दूसरे को सबक सिखाने के चक्कर में अपनी ही हानि कर बैठा है। तब तक बाजी हाथ से निकल चुकी होती है। अब मात्र प्रायश्चित ही शेष बचता है। यदि वह बदल लेने से पहले एक बार विचार कर लेता, सोच लेता तो अपना अहित करने से बच सकता था। इस प्रकार उसकी मानसिक शान्ति बनी रहती और अपनी जग हँसाई से भी वह बच सकता था।
          इसलिए मनीषी अपने ज्ञान और शिक्षा से हमारा मार्गदर्शन करते हैं। वे हम मनुष्यों के विवेक को जागृत करने का प्रयास करते हैं। जिससे मनुष्य के समक्ष कभी ऐसी परिस्थिति पुनः आ जाए तो वह सावधान हो सके। अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसे विवेकहीन कार्य को दुबारा न कर सके। यह आवश्यक नहीं है कि मनुष्य हर क्रिया की प्रतिक्रिया देता रहे। जो समय उसे अपनी योजनाओं को क्रियान्वित करने में लगाना चाहिए, उसे वह व्यर्थ ही गँवाता बैठे। फिर बाद में हानि उठाकर प्रायश्चित करता फिरे। उसे दूसरों की गलतियों को नजरअंदाज करते हुए, अपने पूर्व निर्धारित किए हुए मार्ग पर उसे बस सफलतापूर्वक अग्रसर होना चाहिए।
        दूसरे को उसकी गलती की सजा देने के कारण मनुष्य यदि स्वयं ही अपने निर्धारित लक्ष्य और पथ से विचलित हो जाए, तब उसे कौन बचा पाएगा? मनुष्य अपने किए गए शुभाशुभ कर्मों के द्वारा ही सफलता की सीढ़ी पर ऊपर चढ़ता है अथवा असफलता की सीढ़ी से फिसलकर नीचे गिरता है। यह उसे स्वयं ही निर्धारित करना होता है। उसे विषय के सारे पहलुओं पर मनन करते हुए आगे कदम बढ़ाना चाहिए।
          एक दृष्टान्त की सहायता से समझने का प्रयास करते हैं। दिन एक साँप किसी बढ़ई की औजारों वाली बोरी में घुस गया। घुसते समय बोरी में रखी हुई बढ़ई की आरी उसके शरीर में चुभ गई और उसमें घाव हो गया। उससे उसे दर्द होने लगा और वह विचलित हो गया। गुस्से में उसने उस आरी को अपने दोनों जबड़ों में जोर से दबा दिया। अब उसके मुँह में भी घाव हो गया और खून निकलने लगा। इस दर्द से परेशान होकर, उस आरी को सबक सिखाने के लिए, उसने अपने पूरे शरीर को उस आरी के ऊपर लपेट लिया और पूरी ताकत के साथ उसे जकड़ लिया। इस प्रयास से उस साँप का सारा शरीर जगह-जगह से कट गया और अन्ततः उसकी मृत्यु हो गई।
          इस कथा से यही शिक्षा मिलती है कि दूसरे को यानी आरी को उसकी गलती की सजा देते हुए साँप को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े। यदि पहले मिले घाव के बाद आरी को वहीं छोड़कर उस बोरी से बाहर निकल आता तो शायद वह जीवित बच जाता। थोड़ा-सा घाव था, वह शीघ्र ठीक हो जाता। परन्तु बदल लेने की आग ने उसका समूल नाश कर दिया। दूसरे को क्षमा कर देने से व्यक्ति कभी छोटा नहीं होता बल्कि वह दूसरों की दृष्टि में महान बन जाता है। लोग उसकी दरियादिली के कारण ही तो उसके कायल हो जाते हैं।
           कहने का अर्थ इतना ही है कि मनुष्य अपने कृत कर्मों के द्वारा इस संसार में अपनी पहचान बनाता है। अपनी सफलता के झण्डे गाड़ता है या फिर असफल होकर गुमनामी के अन्धेरों में खो जाता है। बदला लेने की प्रवृत्ति सदा ही कष्टदायक होती है। इससे यथासम्भव बचना चाहिए। दूसरे का अहित करते हुए मनुष्य अपना सुख-चैन खो देता है। इसलिए आत्मतुष्टि के लिए दूसरों को सच्चे मन से क्षमा करके एक सहृदय मानव होने का परिचय देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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