सोमवार, 28 मई 2018

आंखों देखी कानों सुनी

आँखों देखी या कानों से सुनी हर बात सत्य हो, यह आवश्यक नहीं है। हम उस एक ही पक्ष को देखते और सुनते हैं, जो हमें प्रत्यक्ष दिखाई या सुनाई देता है। उसके दूसरे पहलू के विषय में जानकारी न होने के कारण हम कोई विशेष धारणा बना लेते हैं। जब हमारा वास्तविकता से सामना होता है तब पश्चाताप करना पड़ता है। अपनी नजरों को झुकाकर क्षमा-याचना करनी पड़ती है। उस दयनीय स्थिति से बचने के लिए मनुष्य को सावधान रहना चाहिए। उसे ऐसा कुछ भी नहीं कहना चाहिए जो उसके तिरस्कार का कारण बन जाए।
          देखकर गलत धारणा बनाने को लेकर एक घटना की चर्चा करते हैं। कभी एक सन्त प्रात:काल भ्रमण हेतु समुद्र के तट पर पहुँचे। समुद्र के तट पर उन्होने ऐसे पुरुष को देखा जो एक स्त्री की गोद में सिर रखकर सोया हुआ था। पास में शराब की खाली बोतल पड़ी हुई थी। यह देखकर सन्त बहुत दु:खी हुए। उनके मन में विचार आया कि यह मनुष्य कितना तामसिक वृत्ति का है और विलासी है, जो प्रात:काल शराब का सेवन करके स्त्री की गोद में सिर रखकर प्रेमालाप कर रहा है।
         थोड़ी देर के पश्चात समुद्र से बचाओ- बचाओ की आवाज आई। सन्त ने देखा कि कोई मनुष्य समुद्र में डूब रहा है, उन्हें तैरना नहीं आता था, अतः देखते रहने के अलावा वे कुछ नहीं कर सकते थे। स्त्री की गोद में सिर रखकर सोया हुआ व्यक्ति उठा और उस डूबने वाले को बचाने हेतु पानी में कूद गया। थोड़ी देर में उसने डूबने वाले को बचा लिया और उसे किनारे पर ले आया। सन्त सोचने लगे कि इस व्यक्ति को बुरा कहें या भला। वे उसके पास गए और उन्होंने उससे पूछा- 'भाई तुम कौन हो और यहाँ क्या कर रहे हो?'
           उस व्यक्ति ने उत्तर दिया- 'मैं एक मछुआरा हूँ। मछली पकड़ने का काम करता हूँ। आज कई दिनों बाद समुद्र से मछली पकड़ कर प्रात: ही लौटा हूँ। मेरी माँ मुझे लेने के लिए आई थी और घर में कोई दूसरा बर्तन नहीं था, इसलिए वह इस मदिरा की बोतल में ही पानी भरकर ले आई। कई दिनों की यात्रा से मैं थका हुआ था और भोर के सुहावने वातावरण में यह पानी पीकर थकान कम करने के उद्देश्य से माँ की गोद में सिर रख कर सो गया।'
         सन्त की आँखों में आँसू आ गए- 'मैं कैसा पातकी मनुष्य हूँ, जो देखा उसके बारे में मैंने गलत विचार किया जबकि वास्तविकता अलग थी।'
             इस घटना से यही समझ में आता है कि जिसे हम देखते हैं, वह हमेशा जैसी दिखती है वैसी नहीं होती। उसका एक दूसरा पक्ष भी हो सकता है। किसी के प्रति कोई धारणा बना लेने से पहले सौ बार सोचना चाहिए। तब कहीं जाकर कोई फैसला लेना चाहिए। हमें अपनी सोच का दायरा विस्तृत करना चाहिए। देखने-सुनने के अनुसार स्वयं की बनाई सोच को सच मान लेना उचित नहीं होता। हो सकता है कि हमारी आँखे या कान धोखा खा रहे हों। परन्तु वास्तविकता कुछ और ही हो।
          कहने को तो यह छोटी-सी घटना है, पर मन को झकझोर देती है। मनुष्य बिना सोचे-समझे अपनी बुद्धि को सही मानते हुए गलत अवधरणा बना लेता है। किसी भी बात की जड़ तक जाए बिना पूर्ण सत्य से साक्षात्कार नहीं किया जा सकता। सच्चाई को परखने के लिए पैनी दृष्टि की आवश्यकता होती है। यह पारखी नजर मनुष्य को अपने अनुभव से मिलती है। ओछी हरकतें करने वालों को सदा मुँह की खानी पड़ती है।
           आधा-अधूरा ज्ञान सदा ही विध्वंस कारक होता है। जो भी देखें या सुने उसे निकष पर कसें। इससे भी बढ़कर यह जानने का प्रयास करना चाहिए कि हमारी सोच कहाँ तक सही है। किसी भी घटना के सारे पहलुओं को जाने बिना कोई धारणा नहीं बनानी चाहिए। इसके अतिरिक्त चटकारे लेकर, मिर्च-मसाला लगाकर दूसरों को अपमानित करने की प्रवृत्ति से बचना चाहिए। ऐसे अफवाहें फैलाने वालों की जब पोल खुल जाती है तो वे कहीं के भी नहीं रह जाते। लोग उन पर विश्वास करना छोड़ देते हैं और उनकी बातों को सीरियसली न लेकर मजाक में उड़ा देते हैं। इसलिए मनुष्य को ऐसी स्थितयों से बचना चाहिए। उसे एक जिम्मेदार मनुष्य बनने का प्रयास करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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