शुक्रवार, 4 मई 2018

मन और बुद्धि की जंग

मन और उसकी बुद्धि दोनों में सदा से ही द्वन्द्व चलता रहता है, उनमें प्रायः सामञ्जस्य नहीं हो पाता। मन किसी कार्य को करने की प्रेरणा देता है तो बुद्धि उसी कार्य को करने से रोक देती है। बुद्धि किसी कार्य को करना चाहती है तो मन अडंगा लगता है। ऐसी स्थिति में कार्य को करने के लिए उचित निर्णय लेना, मनुष्य के लिए बहुत कठिन हो जाता है। इसका कारण है कि ये दोनों अपनी-अपनी हाँकते हैं। ये दोनों विपरीत दिशा में भागते रहते हैं। जब तक इन दोनों को अपने नियन्त्रण में नहीं किया जाएगा तब तक ये बेचारे मनुष्य को इधर-उधर भटकाते रहते हैं।
          बहुधा लोग मन और बुद्धि में अन्‍तर नहीं कर पाते। उन्हें समझ ही नहीं आता कि उनके द्वारा लिया गया निर्णय मन से प्रेरित हो रहा है अथवा बुद्धि से। इन दोनों में से किसी एक के नियन्त्रण में होकर ही निर्णय लिया जा सकता है। इस प्रकार दुविधा की स्थिति समक्ष आ जाने पर मनुष्य उस व्यक्ति विशेष से परामर्श कर सकता है जो उसका हितचिन्तक हो। वही उसे उस कठिन परिस्थिति से उभार सकता है और सही मार्गदर्शन कर सकता है।
          मनुष्य कभी मन की सुनता है तो कभी बुद्धि की। बुद्धि के अनुसार सोच-समझकर जो निर्णय लिया जाता है, वह सही होता है। इसका कारण है कि बुद्धि हमेशा किसी भी विषय के गुणों और दोषों पर विचार करते हुए अपना पक्ष रखती है। उस निर्णय पर मनुष्य आँख बन्द करके विश्वास कर सकता है। बुद्धि का निर्णय सदा ही विवेकपूर्ण होता है। बुद्धि के निर्णय सदा तर्क की कसौटी पर कसे जा सकते हैं। जिस रास्‍ते पर चलने के लिए बुद्धि प्रेरित करती है, वह रास्ता लम्बा या कठिन हो सकता है, पर कभी निराश नहीं करता। उसे मान लेने पर मनुष्य को जीवन में कभी पश्चाताप नहीं करना पड़ता।
         इसके विपरीत मन तो मनुष्य की सोच से भी आगे भागता है, इसलिए उसे चञ्चल कहा गया है। उसके निर्णय पर भरोसा नहीं किया जा सकता। हो सकता है कि वह निर्णय मूर्खतापूर्ण हो जिसके कारण जीवन पर्यन्त पछताना पड़ जाए। मन सदा शॉर्टकट की तलाश में रहता है। वह सुविधपूर्वक और सरल मार्ग चुनने का निर्णय लेता है। बिना सोचे-समझे उस रास्‍ते पर चलने का यह अर्थ होता है अपने पैर पर स्वयं कुल्हाडी मरना। वह मार्ग कुमार्ग भी हो सकता है। उस पर चलना अपने जीवन को बर्बाद करना होता है।
          मन और बुद्धि जब किसी विषय पर हमारे समक्ष अपना मत प्रस्तुत करते हैं। तब यह हमारी जिम्मेदारी बनती है कि उन दोनों पर मनन करें। जो भी मत हमारी तर्क की कसौटी पर खरा उतरे, उसी मार्ग का चयन करें। हमारे निर्णय उस समय गलत साबित होते हैं, जब हम सुविधाजनक मार्ग का बिना विचारे चयन कर लेते हैं। जब लगे कि गाड़ी गलत ट्रैक पर चल रही है, उसी समय अपने सही मार्ग का चयन करके गलती को सुधारकर अपनी समझदारी का परिचय दिया जा सकता है।
          उपनिषद का कथन विचारणीय है जो कहता है कि मन मनुष्य के रथ रूपी शरीर की लगाम है। बुद्धि को ऋषि ने सारथी कहा है जो रथ को चलाता है। सारथी बुद्धि का यह दायित्व है कि वह मन रूपी लगाम को कसकर रखे ताकि आत्मा रूपी यात्री अपनी मंजिल यानी मोक्ष को प्राप्त करके जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त हो सके। यदि लगाम को ढीला छोड़ दिया जाए तो इन्द्रियाँ रूपी घोड़े मनमाना आचरण करने लगते हैं। वे यात्री को लक्ष्य पर पहुँचने से पहले ही भटका देते हैं।
          मन की हर बात अवश्य सुननी चाहिए पर उस पर आँख मूँदकर नहीं चलना चाहिए। उस पर गम्भीरता से विचार करना बहुत ही आवश्यक होता है। बुद्धि विवेकशील होती है, वह तर्कसंगत बात कहती है। वह किसी भी बात के सारे पहलुओं पर विचार-विमर्श करके ही सलाह देती है। इसलिए बुद्धि और मन की जंग में निश्चित ही बुद्धि की सदा विजय होती है। उसके अनुरूप कार्य करके मनुष्य कभी व्यथित नही होता बल्कि सदा सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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