शनिवार, 19 मई 2018

रिश्तों का बैंक

कहने और सुनने में अटपटा अवश्य लग सकता है, परन्तु वास्तविकता यही है कि अपने रिश्तों का एक बैंक बनाइए। प्रयास यही किया जाना चाहिए कि इस बैंक की पासबुक में अंकित पूँजी में दिन-प्रतिदिन वृद्धि होती रहे। इसमें से किसी भी तरह का डेबिट न होने पाए। जितनी यह पूँजी बढ़ती जाएगी, उतनी ही हमारी सामाजिक सुरक्षा भी बढ़ती जाएगी। इसके घटते जाने से, अकेले हो जाने का एक प्रकार का अनजाना-सा डर किसी के भी मन में समाने लगता है।
           बैंक में हम सभी अपना पैसा सुरक्षित रखने के लिए जमा करवाते हैं। साथ ही इस जमा राशि पर व्याज भी मिलता है। इस प्रकार पैसा उत्तरोत्तर बढ़ता रहता है। जितना धन अपने खाते में जमा करते रहते हैं, उतना ही हमें सुरक्षा का अहसास होता है। यह धन घर-परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के काम आता है। जैसे बच्चों की शिक्षा, उनके विवाहादि शुभकार्यों, बीमारी इत्यादि में इस धन का उपयोग किया जाता है। सबसे बड़ी बात अपनी वृद्धावस्था सुरक्षित करने के लिए भी धन का संग्रह करते हैं।
          इसके विपरीत यदि बैंक से पैसा निकाल जाए तो उतनी राशि हमारे खाते में से कम हो जाती है। उस पर व्याज भी नहीं मिलता। यानी कि हमारी जमा पूँजी बढ़ने के स्थान पर कम हो जाती है। फिर हम अपनी ओर से हर सम्भव प्रयास करते हैं कि उतना धन पुनः बैंक में जमा करवा दिया जाए।
          मनुष्य भी यदि रिश्तों को सहेजकर रखता है तो वे जमा धन की तरह बढ़ते रहते हैं। धीरे-धीरे अपने बन्धु-बान्धवों की बहुत बड़ी संख्या हो जाती है। ये सब हमारे सुख-दुख के साथी बनते हैं। हमारी अनेक बुजाएँ बनकर सहारा देती हैं। जब भी हम लड़खड़ाने लगते हैं तो आगे बढ़कर थम लेती हैं। इससे अधिक गर्व का विषय किसी इन्सान के लिए और क्या हो सकता है कि उसके अपने उसे हर स्थिति में चारों और से सुरक्षित रखते हैं। इस पूँजी से मनुष्य का आत्मिक बल बढ़ता है। वह किसी भी कठिन परिस्थिति का सामना सीना ठोककर कर सकता है।
          जब मनुष्य वृद्धावस्था की दहलीज पर अपना कदम रखता है, तब ये उसे अकेलेपन का अहसास तक नहीं होने देते। उस समय उसे यह सुखद अहसास होता है कि उसके पास अपना कहने के लिए बहुत लोग हैं। सबसे मिलना चाहे कभी-कभी हो सके, परन्तु उनके अपनेपन का भाव ही बहुत होता है। इस समय मनुष्य को समझ आती है कि रिश्तों को बनाए रखने का सुख क्या होता है? उसने कितनी बुद्धिमत्ता की है इन्हें सहेजकर।
          जो लोग जमा धन को बैंक से निकाल-निकालकर खर्च करते रहते हैं पर जमा नहीं करवा पाते उनका बैंक खाता खाली हो जाता है। उसी तरह अपने रिश्तों को एक-एक करके छोड़ देने वालों का खाता भी एक दिन खाली हो जाता है। उनके पास अपना कहने के लिए कोई नहीं बचता। वे धीरे-धीरे अवसाद की ओर बढ़ने लगते हैं। अपने नकारात्मक रवैये के कारण ऐसे लोग सदा दूसरों के दोष ढूंढने में लगे रहते हैं। अपने झूठे अहं के कारण अपनी जमा पूँजी व्यर्थ गँवा बैठते हैं।
           वृद्धावस्था में जब बन्धु-बान्धवों की बहुत आवश्यकता होती है, उस समय ये खाली हाथ शून्य को ताकते रहते हैं। वे किसी से बात करके अपना मन हल्का करना चाहते हैं, पर उनसे कोई बात नहीं करना चाहता। पहले यदि किसी के पास बैठकर, दो घड़ी प्यार से बात की हो तो कोई अब उनकी सुने। यह तो संसार का नियम है कि इस हाथ दे और उस हाथ ले। जैसे बीज मनुष्य बोता है, वैसा ही तो फल उसे मिलता है। इस आयु में रोने-कलपने और दूसरों को कोसने का कोई लाभ नहीं होता। दूसरों को खून सफेद हो जाने का ताना कसने से पहले अपने गिरेबान में झाँक लेना अति आवश्यक होता है।
           यह सत्य है कि मनुष्य जितना गम खाकर अपने रिश्तों की जमा पूँजी बैंक में जोड़ेगा, वह एक व्यवसायी की तरह उतना ही सफल बनता जाएगा। उसे जीवन के किसी पड़ाव में चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं रहती। अतः जहाँ तक हो सके इस पूँजी को सहेजकर रखना चाहिए। यदि थोड़ा-सा झुककर भी रिश्ते सहेजने पड़ें तो सौदा महँगा कतई नहीं है। इस विषय पर विचार अवश्य कीजिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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