मंगलवार, 29 मई 2018

नेक काम करें

प्रतिदिन पूर्व दिशा की ओर से सूर्य का उदय होता है और फिर धीरे-धीरे दिन का अवसान हो जाता है। यानी सायंकाल सूर्य पश्चिम दिशा में जाकर अस्त हो जाता है। युगों-युगों से यह क्रम अनवरत चलता आ रहा है। इसमें कभी कोई फेरबदल नहीं हुआ। इस क्रम को कहते हैं कि एक दिन समाप्त हो गया। केलेण्डर का एक दिन और बढ़ गया। इस प्रकार सूर्य का उदय और अस्त होने का यह खेल निरन्तर चलता रहता है।
         मनुष्य को यह मानकर चलना चाहिए कि उसकी आयु एक-एक दिन करके कम हो रही है। इसलिए जो भी कार्य उसने सोचे हैं उन्हें शीघ्र ही पूर्ण कर लेना चाहिए। ऐसा न हो कि जीवन की अन्तिम घडियों में उसे प्रायश्चित करने का अवसर न मिले। दिन में किए हुए कार्यों पर मनन करना चाहिए। यदि शुभकर्म अधिक किए हों तो अगले दिन उसमें वृद्धि होनी चाहिए। यदि गलत काम अधिक किए हैं तो पश्चाताप करते हुए उन्हें अगले दिन न दोहराने का संकल्प करना चाहिए।
          किसी कवि ने बहुत सुन्दर शब्दों में हमें समझने का प्रयास किया है-
          आयुषः   खण्डमादाय   रविरस्तमयं  गतः।
          अहन्यहनि बोध्दव्यं किमेतेत् सुकृतं कृतम्।।
अर्थात सूरज के अस्त होने पर अपनी आयु का एक दिन कम हो जाता है । यह जानते हुए प्रत्येक मनुष्य को दिनभर के अपने किये हुए नेक कर्मों पर विचार करना चाहिये।
          मनुष्य यदि प्रतिदिन कुछ नेक कर्म करने का अभ्यास बना ले तो धीरे-धीरे उसके हृदय में शुभकर्मों का उदय होने लगता है। उसका मन शान्त होने लगता है। उसे अपूर्व सुख का अनुभव होने लगता है। परन्तु यदि वह आलस्य के कारण अपने कामों को टालता रहता है तो वह अपना समय व्यर्थ गँवाता रहता है। एक समय ऐसा उसके जीवन में ऐसा आता है जब उसे इस असार संसार को विदा कहना पड़ता है। उस समय उसे एक पल की भी मोहलत नहीं मिल पाती।
          कवि चेतावनी देते हुए हमें समझ रहा है कि-
           आयुषः क्षण एकोऽपि सर्वरत्नैर्न लभ्यते।
           नीयते स  वृथा  येन  प्रमादः  सुमहानहो॥
अर्थात आयु का एक क्षण भी सारे रत्नों को देने से प्राप्त नहीं किया जा सकता है। अतः इसे व्यर्थ में नष्ट कर देना महान भूल है।
          कवि के कहने का तात्पर्य यह है कि मनुष्य को यह जीवन बहुत ही पुण्यकर्मों के उदय होने पर मिलता है। अपने जीवनकाल में उसे अपने सभी आवश्यक कार्य पूर्ण कर लेने चाहिए। जब मनुष्य मृत्यु के द्वार पर खड़ा होता है, यदि तब वह चाहे कि कुछ पल की मोहलत उसे मिल जाए तो वह अपने बचे हुए कार्य निपटा ले तो उसका सोचना व्यर्थ है। उस समय वह अपनी सारी धन-दौलत के बदले एक पल की कामना करें तो यह उसकी भूल है। तब उसकी कोई जुगत काम नहीं आती उस समय वह असहाय-सा मूक दर्शक बना देखता रह जाता है। स्वयं को कोसता है कि समय रहते उसे होश क्यों नहीं आई?
         जब तक मनुष्य जीवित है, उसके शरीर में प्राण हैं तब तक उसे समय का सदुपयोग करना चाहिए। अन्यथा पश्चाताप करने के अतिरिक्त वह और कुछ नहीं कर सकता। जीते जी लोक-परलोक सुधारने के लिए जो भी कार्य मनुष्य करना चाहता है, उन्हें कर लेना चाहिए। उन्हें टालते रहने से रेत में पड़ी मछली की तरह समय हाथ से फिसल जाता है। अपने जीवन के अन्तिम पल में कुछ भी करने में वह असमर्थ हो जाता है।
          दुनिया से विदा लेते हुए उसे स्मरण हो आता है कि संसार में आने से पहले उसने मालिक से वादा किया था कि जन्म लेने के पश्चात वह उसका नाम जप्त रहेगा। पर दुनियाँ के राग-रंग में, उसकी चकाचौंध में वह सब कुछ बिसरा देता है। जब अन्तकाल में उसे होश आती है तो बाजी उसके हाथ से निकल चुकी होती है। वह बस खाली हाथ रह जाते हैं। वह अपने दुर्भाग्य को व्यर्थ ही कोसता है। इसलिए समय रहते चेत जाने मनुष्य इस संसार से रीते नहीं जाते।
चन्द्र प्रभा सूद
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