गुरुवार, 15 नवंबर 2018

घर के दरवाजे पर

घर के दरवाजे पर
खड़ी धूप देखो आज
फिर से दस्तक दे रही है
मुझे बारबार ही जगाती जा रही है

कहती है उठ जाओ
और अब जुट जाओ तुम
अपनी दुनिया के कारोबार में
जब देर हो जाएगी तब क्या करोगी?

तुम्हारे सभी साथी
प्रतीक्षा किए बिना ही
तुम्हें पीछे छोड़ कर वहाँ
नित्य आगे बढ़ते जा रहे हैं पग-पग

चलो आलस्य छोड़ो
आगे बढ़ती जाओ तुम
कदमताल करते हुए अब
उनके कदमों से कदम मिला लो जरा

उनींदी आँखों को मैं
खोलने के प्रयत्न में हूँ
सोचती हूँ अब उठ जाऊँ
धूप ने मुझे आईना दिखला दिया है

अपने साथियों को
आवाज देती हूँ कि वे
जरा रुक जाएँ मेरे लिए
पर यह क्या किसी को फुरसत नहीं

किसी ने मेरी ओर
पलटकर देखा ही नहीं
मैं मायूस अकेले चलती
जा रही हूँ तेज कदमों को बढ़ाते हुए

शायद ऐसा ही
होता है दुनिया में
जो पिछड़ जाए उसे
कोई हाथ बढ़ा करके नहीं थामता है

समझ गई हूँ मैं
संसार का ये बहुत
दुखदायी चलन है यहाँ
खुद चलो, खुद बढ़ो तभी तो जीत है

समय रहते ही
खुल गई हैं आँखें
नहीं तो झूठे भ्रम में
जीती रहती सदा के लिए इस जग में।
चन्द्र प्रभा सूद
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