रविवार, 25 नवंबर 2018

कर्मों की शुचिता

हर व्यक्ति की हार्दिक कामना होती है कि वह अपने जीवन में अधिक-से-अधिक धन-सम्पत्ति का संग्रह कर ले। अपने व अपने परिवार के लिए दुनियाभर की सारी सुख-सुविधाएँ जुटा ले ताकि उनका जीवन सुविधा से, बिना किसी कष्ट के व्यतीत हो सके। उसके लिए दिन-रात दीवानों की तरह जुटकर परिश्रम करता रहता है। अन्ततः 'येन केन प्रकारेण' वह अपने लक्ष्य में सफल भी हो जाता है। उस धन से वह अपने व अपनों की खुशियाँ खरीदने का यत्न करता है। अब प्रश्न यह उठता है कि उसका यह श्रम आखिर कब तक फलदायी रहता है? यानी वह कब तक उसका भोग कर सकता है?
          किसी ने अपने जीवन में अथक परिश्रम करके सुख-समृद्धि प्राप्त कर ली हो या उसे उत्तराधिकार में धन-वैभव प्राप्त होता है, उस पर उसका अधिकार अल्पकाल के लिए ही होता है। यानी यह सब उसके इसी जीवन काल तक ही सीमित रहता है। मनुष्य की मृत्यु के उपरान्त उसे यह सब कुछ छोड़कर खाली हाथ ही इस दुनिया से विदा होना पड़ता है। बहुत आश्चर्य की बात है कि वह अपने साथ कुछ भी नहीं ले जा सकता। इसीलिए मनुष्य इस संसार में खाली हाथ आता है। उसी तरह खाली हाथ ही चला भी जाता है। ये सब उसकी मृत्यु से पूर्व तत्काल ही उससे विदा ले लेते हैं।
       मनुष्य अपने सम्बन्धीजनों अर्थात परिवार, मित्र, भाई-बन्धुओं के बल पर इतराता फिरता है। उनके लिए सुख-ऐश्वर्य के साधन एकत्र करता है। उनके लिए जीता है, उन्हीं के लिए मरता है। वह अपने परिजनों के लिए अपनी जान को बेशक दाँव पर लगा दे पर इसका उसे कोई लाभ नहीं होता। अपने जीवन काल में मनुष्य ने अपने परिवार के लिए कितना कुछ भी क्यों न किया हो अथवा उसके  सम्बन्धी उससे कितना भी नेह क्यों न करते हों, परन्तु वे केवल शमशान तक ही साथ जाते हैं। उसके आगे की यात्रा मनुष्य को अपने बल पर तय करनी होती है।
        मनुष्य का अपना यह शरीर भी सदा उसका साथ नहीं निभाता। अपने जीवनकाल में मनुष्य अपने शरीर को कितना ही सजा ले या सँवार ले, उसका ध्यान अपने से भी अधिक रख ले, परन्तु दिन-प्रतिदिन इसका  निरन्तर क्षय होता रहता है। बीमारी में यह क्षीण होता जाता है। आयु बीतने पर झुर्रियाँ पड़ने के कारण वह कुरूप हो जाता है। इसी प्रकार कई बार दुर्भाग्यवश एक्सीडेण्ट हो जाने पर भी शरीर क्षतिग्रस्त हो जाता है। स्वस्थ शरीर बहुत ही महत्वपूर्ण होता है क्योंकि जब शारीरिक रूप से मनुष्य सबल होंगा तभी वह अपना ध्यान रख सकता है और अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहण कर सकता है।
          मृत्यु हो जाने के पश्चात अपने प्रियजन भी उसे उसी के अरमानों से बनाए हुए घर में रखने से इन्कार कर देते हैं। वे इसे शीघ्र ही घर से निकलकर अग्नि को समर्पित कर देते हैं। जब इस शरीर को चिता पर लिटाकर भस्म कर दिया जाता है, तब इस शरीर से उसका सम्बन्ध टूट जाता है। फिर वह नए शरीर के साथ अगला नया जन्म लेकर इस संसार में वापिस लौटता है। उस समय उसे सभी पुराने रिश्ते-नाते विस्मृत हो जाते हैं।
         इस सम्पूर्ण विश्लेषण के उपरान्त हम कह सकते हैं कि केवल शुभाशुभ कर्म जो वह करता है, वही उसके सच्चे भाई-बन्धु होते हैं। वे कभी उसका साथ नहीं छोड़ते। मनुष्य के कर्म जन्म-जन्मान्तरों तक उसका साथ निभाते हैं। इन्हीं कर्मों के अनुसार ही मनुष्य को भावी जन्म मिलता है यानी वे ही उसका प्रारब्ध बनते हैं। उन्हीं के अनुसार उसे अपने आने वाले जन्म में रंग-रूप, योग्य पति या पत्नी, व्यक्तित्व, सुख-दुख, सुख-सम्पत्ति, आज्ञाकारी सन्तान आदि मिलते हैं। अच्छे कर्मों से मनुष्य की पहचान होती है और वे ही उसके जीवन का आधार होते हैं। इनके फलस्वरूप मनुष्य स्वयं ही शान्ति का अनुभव करता है।
         मनुष्य को इस भौतिक संसार में जीने के लिए धन-वैभव, भाई-बन्धुओं, परिवार आदि की बहुत आवश्यकता होती है। इस शरीर को स्वस्थ रखना भी उसका दायित्व होता है। मनुष्य अपने कर्मों और उसके फल के लिए स्वयं ही उत्तरदायी होता है, उसके लिए दूसरों को दोष देना किसी भी प्रकार से उचित नहीं है। उसे यत्न करना चाहिए कि वह सावधान रहें। अपने कर्मों की शुचिता पर मनुष्य को सर्वाधिक ध्यान देना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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