सोमवार, 26 नवंबर 2018

शरीर का क्रम

मनुष्य को अनावश्यक दुखी न होकर सदा मस्त रहने का स्वभाव बनाना चाहिए। दुनिया में इतने झमेले हैं कि उनसे बच पाना बहुत कठिन होता है। फिर भी स्वयं को इतना व्यस्त रखना चाहिए ताकि व्यर्थ या ऊलजलूल सोचने का समय ही न मिल सके। इससे नकारात्मक विचारों से बचा जा सकता है। जीवन को रहस्यमय नहीं बनाना चाहिए कि वह उन रहस्यों को सुलझाता फिरे और परेशान होता रहे। जीवन को जितना सरल रूप से जिया जाए, उतना ही मनुष्य के लिए अच्छा होता है। इससे मनुष्य छल-प्रपञ्च से दूर रहता है। तथा उसकी मानसिक शान्ति बनी रहती है। वह अपने जीवन में अपने घर-परिवार की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए तथा समाजसेवा के अनेक उपयोगी कार्य कर सकता है। 
          इस जीवन की सच्चाई यही है कि सुख-चैन से जीने के लिए मनुष्य को खाने के लिए मात्र दो रोटी और पहनने के लिए दो जोड़ी कपड़ों की आवश्यकता होती है। मनुष्य शान दिखाने के लिए अपनी आवश्यकताओं को जितना चाहे असीम कर ले, उससे उसे दुख के सिवा कुछ भी नहीं मिलता।परेशानी से जीने के लिए उसे चार मोटरें, दो बंगले और उसका बनाया सारा तामझाम या साम्राज्य भी कम पड़ जाता है। उसके लिए भागमभाग करने के अतिरिक्त और कोई चारा नहीं बचता।
         आयु के बीतने पर अमीर-गरीब, पढ़े-लिखे सब लोगों की एक जैसी स्थिति होने लगती है। इसलिए चिन्ता और टेंशन को छोड़कर मस्त रहने का अभ्यास करना चाहिए। इससे स्वस्थ पर कुप्रभाव नहीं पड़ता। यदि स्वस्थ गड़बड़ा जाता है तो जीवन का आनन्द ही समाप्त हो जाता है। तब मनुष्य की जिजीविषा या जीने की इच्छा ही समाप्त होने लगती है। उसे अपना जीवन भार लगने लगता है। उस समय मनुष्य ईश्वर से उसे इस संसार से उठा लेने की प्रार्थना करने लगता है। यद्यपि मनुष्य को अपने कर्मों के अनुसार मिले श्वासों को पूरा करना ही पड़ता है। उससे पहले उसे इस जीवन से मुक्ति नहीं मिलती।
        युवा होते होते मनुष्य योग्य बनकर व्यापार या नौकरी करने लगता है। उस समय उसकी उड़ान आकाश छूना चाहती है। वह अपने पंख पसारकर उड़ता फिरता है। फिर उसका अपना परिवार बनता है। वह उसी की सुख-सुविधाओं को पूर्ण करने में जुट जाता है। बच्चों को सेटल करके उनकी शादी करता है। फिर अपने नाती-पोतों के साथ मस्त हो जाता है। इस अवस्था में उच्च शिक्षित और अल्प शिक्षित सभी एक जैसे ही होते हैं। सभी लोगों का कमोबेश यही क्रम रहता है। 
       साठ साल की अवस्था तक पहुँचने तक उच्च पद और निम्न पद सभी एक जैसे ही हो जाते हैं। मनुष्य अपनी सेवाओं से मुक्त होकर रिटायर हो जाता है। चपरासी भी अधिकारी के सेवा निवृत्त होने के बाद उनकी तरफ़ देखने से कतराता है। उसे समय बिताने की समस्या होने लगती है। अभी तक जिन्दगी में भगदौड़ हो रही होती है। अनायास ही उसे खालीपन अखरने लगता है। रूप और कुरूप सब एक जैसे ही दिखने लगते हैं। कोई कितना भी सुन्दर क्यों न हों, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ने लगती हैं। आँखों के नीचे के डार्क सर्कल छुपाए नहीं छुपते। बालों की सफेदी और नजर की कमजोरी चुगली कर ही देती हैं।
         आयु जब सत्तर साल की होने लगती है, उस समय बड़ा घर और छोटा घर एक जैसे हो जाते हैं। घुटनों का दर्द और हड्डियों का गलना परेशान करने लगता है। मनुष्य न चाहते हुए भी बैठे रहने के लिए मजबूर हो जाता है। उसे महसूस होता है कि वह छोटी जगह में भी गुज़ारा कर सकते है। घर में भी उसका चलना-फिरना मुहाल हो जाता है। ऊपरी मंजिलों में रहने वाले बहुत परेशान होते हैं। घर में लिफ्ट हो तो बात अलग है, अन्यथा घर से बहार निकलना किसी सजा से कम नहीं होता। उसे कहीं भी जाने के लिए सहारे की आवश्यकता अनुभव होने लगती है।
        मनुष्य की आयु जब अस्सी साल की अवस्था तक पहुँच जाती है, तब उसके पास धन का होना या न होना एक बराबर ही हो जाता है। इस आयु में खाना कम हो जाता है। शरीर दिन-ब-दिन कमजोर होने लगता है। यही वह समय होता है, जब उसे बच्चों के सहारे की बहुत आवश्यकता होती है। इस आयु में यदि वह कहीं धन खर्च करना भी चाहें, तो उसे समझ ही नहीं आता कि उसे कहाँ खर्च करना है? जीवन में जरुरतों को पूरा करने के लिए उसे अपना हाथ बच्चों के आगे न फैलाना पड़े, यद्यपि इसलिए उसके पास धन का होना आवश्यक होता है।
        इससे भी अधिक नब्बे साल की अवस्था तक पहुँचने पर मनुष्य का सोना और जागना एक जैसे ही हो जाते हैं। जागने के बावजूद भी उसे समझ नहीं आता कि उसे क्या करना चाहिए? वह अपनी शिथिल इन्द्रियों के कारण अपने शरीर से असमर्थ हो जाता है। उसकी कार्यक्षमता न्यून हो जाती है। थोड़ा-बहुत अपना काम ही वह कर ले, वही उसके लिए बहुत होता है। अशक्त होने के कारण उसका चिड़चिड़ापन बढ़ने लगता है। उसकी याददाश्त में भी कमजोरी आने लगती है।
         शरीर के इस क्रम हर मनुष्य को गुजरना पड़ता है। सारा दिन बच्चों को कोसने के स्थान पर उनकी कठिनाइयों को समझना चाहिए। बच्चे कैसे भी हों, काम तो वही करेंगे। अपना सम्मान बनाए रखने के लिए मनुष्य को संवेदनशील बने रहना चाहिए। बच्चों से कोई गलती हो जाए तो उसे अनदेखा कर देना चाहिए। उनकी बुराई करने के स्थान पर प्रभु को स्मरण करना चाहिए। यदि मनुष्य सुख से जीवन जीना चाहता है तो नकारात्मक विचारों के स्थान पर उसे सदा सकारात्मक बनना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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