गुरुवार, 29 नवंबर 2018

जन्म-मृत्यु के बीच

यह संसार चक्की के दो पाटों की भाँति निरन्तर चलायमान है। इसका एक पाट जन्म है और दूसरा पाट मृत्यु है। इस जन्म और मृत्यु के दोनों पाटों में जीव आजन्म पिसता रहता है। इस क्षणभंगुर संसार में जन्म और मृत्यु के दो पाटों में पिसते हुए मनुष्य का अन्त निश्चित है। अतः इस असार संसार से विरक्ति का होना स्वाभाविक ही है।
        सन्त कबीरदास ने इसे अपने शब्दों में इस प्रकार पिरोया है-
        चलती चक्की देखकर दिया कबीरा रोय।
        दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय।।
अर्थात चक्की को चलते हुए देखका कबीरदास जी रो पड़े हैं। इसके दो पाटों में अनाज का कोई भी दाना साबुत नहीं बच सका। सभी पिस गए हैं।
          ये दो पाट द्वन्द्व हैं यानी सुख-दुःख, लाभ- हानि, जय-पराजय, यश-अपयश, अपना-पराया, दिन-रात आदि। इनसे जो जीत गया, वह समझो बच सकता है। वही परम ज्ञान को प्राप्त कर सकता है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में इसे साक्षी भाव कहा है।
        कबीरदास को उदास देखकर उनके पुत्र कमाल ने यह दोहा लिखा-
       चलती चक्की देख कर, दिया कमाल ठठाय।
       कीले  से  जो  लग  रहा, सोई  रहा  बचाय।।
अर्थात चक्की को चलता हुआ देखकर कमाल ठहाका लगा रहे है। इस चक्की में केवल वही अनाज बच सकता है जो चक्की के मध्य में जुडी कील से चिपक जाता है।
        पहला दोहा मनुष्य की अनित्यता के कारण वैराग्य उपजाता है, लेकिन दूसरा दोहा मन में आशा और आस्था का दीपक दिखाता है। आवागमन रूपी दो पाटों में फँसा जीव अपने दायित्वों को निभाते हुए सदा ऐसे ही पिसता रहता है।
        कुछ प्रश्न मन में उठते हैं कि बचकर क्या जीवन और मृत्यु से मुक्त हो सकते है? क्या काल को वश में किया जा सकता है? पानी के बुलबुले जैसे इस नश्वर जीवन को क्या स्थायित्व मिल सकता है? पल-पल नष्ट होते हुए इस शरीर को क्या सदा के लिए यथावत रखा जा सकता है?
          इन सभी प्रश्नों का उत्तर न ही है। जो मनुष्य प्रभु भक्ति के मार्ग पर चल पड़ता है और उसके प्रति पूर्ण रूप से समर्पित हो जाता है, केवल वही बच सकता है। हर तरफ से स्वयं को समेटकर सिर्फ उस मालिक के साथ एकाकार हो जाना ही ज्ञान है, मूल मंत्र है।
         जन्म और मृत्यु के इस भय से बचने का ही साधन है मुक्ति। मनीषी इसे निर्वाण, परम पद और अभय पद आदि कहते हैं। इस अवस्था को शरीर की सीमा में रहते हुए पाया जा सकता है। अपने अंतस के शत्रुओं काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से स्वयं को मुक्त कराना ही मोक्ष पाना है।
        मनुष्य को वीतरागी होना चाहिए। सभी विपरीत गुणों का अतिक्रमण करने से ही व्यक्ति गुणातीत होता है। जीवन के तमाम परस्पर विरोधी भाव चक्की के दो पाटों की तरह होते हैं। पाप और पुण्य दोनों ही कर्म बन्धन की वजह बनते हैं।
        राग-द्वेष आदि भाव संसार समाज, परिवार, राष्ट्र में हमेशा ही रहेगा। मनुष्य स्वयं को इनसे विलग करके मुक्त हो सकता है। जीवन के सभी विरोधी प्रतीत होने वाले भावों में जो सम रहता है उसे उपनिषद ऋषियों और भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोगी कहा है। वही जन्म और मृत्यु के बन्धनों को काट सकता है। तब वह काल का ग्रास नहीं बनता।
         जीवन का द्वैत भाव उसे चक्की के दो पाटों की तरह ही खा जाता है। जो सच्ची श्रद्धा और अपने निश्चित मन से कीले में चिपके अनाज की तरह उस परमपिता परमात्मा के सदैव समीप रहता है, वही इस भव सागर को पार कर लेता है। जो अपने सांसारिक दायित्वों का निर्वहण करते हुए चौबिसों घण्टे अपने हृदय में प्रभु का स्मरण करता रहता है, वह बालक भक्त प्रह्लाद की तरह हर प्रकार के भौतिक कष्टों से मुक्त हो जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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