शनिवार, 3 नवंबर 2018

शान्त रहना

शान्त जल में मनुष्य अपनी परछाई देख सकता है। उसमें आरपार सब दिखाई दे जाता है। यानि जल के भीतर क्या है, सब प्रत्यक्ष हो जाता है। परन्तु यदि उस ठहरे हुए जल में कंकड़ फैंक दिया जाए तो सब गडमड हो जाता है। उस ठहरे हुए शान्त जल में मानो एक झंझावात-सा आ जाता है। तब उसमें कुछ भी नहीं देख सकते। न उसमें मनुष्य अपनी परछाई देख सकता है और न ही जल के भीतर का सच।
          इसी प्रकार मनुष्य का मन जब तक शान्त रहता है तब तक वह उसमें सब कुछ साफ-साफ देख सकता है। उसके पास आने वालों को उसके हृदय की पवित्रता आकर्षित करती है। कोई भी ऐसे व्यक्ति से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। उसका औरा दोष रहित होता है। इसलिए उसके पास आने वालों का अशान्त मन भी शान्त हो जाता है।
          मनुष्य है कि काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार आदि के कंकड़ उस शान्त मन में फैंकता रहता है और फिर उसे अशान्त बना देता है। तब उसे कुछ भी साफ-साफ दिखना बन्द हो जाता है और अपने मन को भीतर से मैला बना देता है। किसी को भी उसके पास बैठने में अच्छा नहीं लगता। हर व्यक्ति उसके पास से शीघ्र चले जाना चाहता है।
         इस प्रक्रिया से गुजरते हुए उसे यह आभास ही नहीं हो पाता कि वह कहाँ-से-कहाँ पहुँच गया है? उसके संस्कार कितना पीछे छूट गए हैं? वह किस ओर भागता चला जा रहा है? इस सबका अन्त कब तक और कैसे होगा?
        इन सब प्रश्नों के उत्तर भी मनुष्य को स्वयं अपने अंतस से ही मिल सकते हैं। जितना मनुष्य अधिक गहरे पैठता है, उतने ही अधिक उसे समाधान मिलते जाते हैं। उसे कहीं जाने की आवश्यकता नहीं होती। जब वह शान्त चित्त होकर अपने घर में बैठता है, विचार करता है और अपने अंतस को झकझोरता है, तब वह अपनी मानसिक शान्ति के लिए उतने ही रास्ते सरलता से खोज लेता है।
        परन्तु बड़े ही दुःख से कहना पड़ता है कि मनुष्य इन सभी प्रश्नों के समाधान पाने के लिए बाहर भटकता रहता है। तीर्थस्थलों में जाता है, पर्वतों की गुफाओं को तलाशता है, जंगलों की खाक छानता है, तथाकथित गुरुओं की शरण में जाता है, तान्त्रिकों-मान्त्रिकों के द्वार भी खटखटाता है। यानी सभी उपाय कर लेता है, हर जुगत भिड़ा लेता है, फिर भी उसे कहीं कोई लाभ नहीं मिल पाता।
        यदि मनुष्य समय रहते चेत नहीं जाता तो उसकी यह भटकन अनन्त काल तक यानी जन्म-जन्मान्तरों तक बनी रह सकती है। कहीं भी टक्करें मार लो, उसका परिणाम तो शून्य ही रहने वाला है। उसका सारा परिश्रम व्यर्थ हो जाता है। उसकी हर समस्या का समाधान उसे अपना विवेक दे सकता है, पर मनुष्य उस पर मानो विश्वास करना ही नहीं चाहता। इसीलिए वह सदा परेशान होकर सदा इधर-उधर भटकता रहता है।
         मनुष्य के मन को मन्दिर भी कहते हैं और दर्पण भी। जब तक मन मन्दिर स्वच्छ नहीं रहेगा तब तक उसमें ईश्वर का वास नहीं हो सकता। इसी प्रकार जब तक मन रूपी दर्पण पर धूल-मिटटी जमी रहती है तब तक मनुष्य उसमें अपनी प्रतिच्छाया नहीं देख सकता। इन कार्यों के लिए मन का शुचितापूर्ण होना बहुत आवश्यक होता है।
        उजले मन को जब मनुष्य अपनी मूर्खताओं से धूमिल बना देता है तब उसे कुछ भी स्पष्ट नहीं दिखाई देता। उसका अहं, उसके स्वार्थ उस पर हावी होने लगते हैं। उनको पुष्ट करने में वह खो जाता है। अपने चारों ओर वह एक मजबूत दीवार खड़ी कर लेता है जिसे भेदना उसके लिए बहुत कठिन हो जाता है। वहाँ किसी अन्य के लिए कोई स्थान ही नहीं बच पाता।
        जहाँ तक सम्भव हो अपने अन्तस को शान्त बनाए रखने के लिए सद् ग्रर्न्थों का अध्ययन करना चाहिए तथा सज्जनों की संगति में रहकर अपने विचारों की शुद्धता के प्रति मनुष्य को सदा सावधान रहना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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