बुधवार, 28 नवंबर 2018

मैं न होता तो

प्रायः लोगों को यह कहते हुए सुन होगा कि यदि मैं न होता तो क्या होता? पति कहता है मैं न होता तो घर कैसे चलता? पत्नी कहती है मैं न होती तो यह गृहस्थी कैसे चलती? बॉस कहता है वह न होता तो कम्पनी कैसे चलती? कर्मचारी कहता है मैं न होता तो कम्पनी को चला के दिखाते? नेता भी यही सोचते हैं कि वे न होते तो देश कैसे चलता?
           यानी हर किसी को यही लगता है कि उसके बिना कोई कार्य नहीं हो सकता। यानी मनुष्य स्वयं को हर कार्य का श्रेय अनावश्यक ही देता रहता है। वह भूल जाता है कि ईश्वर की सत्ता इस संसार में है। जो कुछ भी होता है उसकी इच्छा से होता है। जिसे तुलसीदास जी के शब्दों में कह सकते हैं-
          होइहि सोइ जो राम रचि राखा।
          को करि तर्क बढ़ावै साखा॥
अर्थात जो कुछ राम ने रच रखा है, वही होगा। तर्क करके कौन शाखा (विस्तार) बढ़ावे।
          इसका अर्थ है कि ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता तक नहीं हिल सकता तो फिर मैं न होता वाली बात कहाँ से आ जाती है? मनुष्य तो बिना विचारे ही सब सफलताओं के फल कर्ता बन जाता है। सब कार्यों का विधान प्रभु ने पहले ही किया हुआ है। वह न चाहे तो मुँह तक पहुँचा हुआ रोटी का निवाला भी इन्सान के मुँह में नहीं जा सकता।
            लंका विजय के उपरान्त हनुमान जी इसी विषय पर प्रभु श्रीराम से चर्चा करते हुए कहते हैं- "अशोक वाटिका में जिस समय रावण क्रोध में भरकर, तलवार लेकर सीता माँ को मारने के लिए दौड़ा था, तब मुझे लगा था कि इसकी तलवार छीनकर इसका सिर काट लेना चाहिए। किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मन्दोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया था। यह देखकर मैं गदगद हो गया। उस समय यदि मैं कूद पड़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मै न होता तो क्या होता?"
          बहुधा हम सबको भी ऐसा ही भ्रम हो जाता है, जैसे हनुमान जी को हो गया था। यदि मै न होता तो उस दिन सीताजी को कौन बचाता? परन्तु भगवान ने उन्हें बचाया ही नहीं बल्कि बचाने का काम रावण की पत्नी को ही सौंप दिया। तब हनुमान जी समझ गए कि प्रभु जिससे जो कार्य करवाना चाहते हैं, वे उसी से करवा ही लेते हैं। इसमें किसी का कोई महत्व नहीं होता है।
           आगे चलकर जब हनुमान जी अशोक वाटिका में जाते हैं तो उन्हें त्रिजटा यह कह रही होती है- "लंका में एक बन्दर आया हुआ है और वह लंका को जलाएगा।"
      तब हनुमान जी चिन्ता मे पड़ गए कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए तो कहा ही नहीं है और त्रिजटा कह रही है तो वे क्या करें? जब रावण के सैनिक तलवार लेकर उन्हें मारने के लिए दौड़े तो उन्होंने स्वयं को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की। जब विभीषण ने दरबार में आकर रावण से कहा- "दूत को नहीं मारना चाहिए, यह तो अनीति है।"
          तब वे समझ गए कि उन्हें बचाने के लिये प्रभु ने सटीक उपाय कर दिया है। उनके आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा- "बन्दर को मारा नहीं जाएगा, पर इसकी पूँछ में कपड़ा लपेटकर, घी डालकर आग लगाई जाए।"
        तब वे गदगद हो गए कि उस लंका वाली सन्त त्रिजटा की ही बात सच हो गई थी, वरना लंका को जलाने के लिए वे घी, तेल, कपड़ा कहाँ से लेकर आते और कहाँ पर आग ढूंढते।  इसके प्रबन्ध का कार्य भगवान ने रावण से करवा दिया। जब रावण से भी प्रभु अपना काम करवा लेते हैं तो अपने भक्त हनुमान से करवा लेने में आश्चर्य की क्या बात है?
           अतः सदा यह स्मरण रखना चाहिए कि इस असार संसार में जो कुछ भी हो रहा है, वह सब ईश्वरीय विधान है, सर्वकालिक सत्य है। हम सभी तो केवल निमित्त मात्र हैं। उस सभी मालिक के हाथ की कठपुतलियाँ हैं। वह जैसा चाहे वैसा दुनिया को चला ले। वह चाहे तो राई को पहाड़ बना दे या पहाड़ को राई जैसा बना दे। वही इस संसार का कारक है, पालक है और विनाशक है। कभी भी यह भ्रम मनुष्य को अपने मन में नहीं पालना चाहिए कि मै न होता तो क्या होता? हम हैं तब भी सारी सृष्टि चलती रहती है और जब इस संसार में नहीं रहेंगे तब यह दुनिया इसी प्रकार चलती रहेगी, इसमें कोई सन्देह नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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