मंगलवार, 27 नवंबर 2018

ईश स्मरण की आयु

ईश्वर का स्मरण करने के लिए न कोई आयु होती है और कोई समय। छोटा बच्चा भी प्रभु का नाम ले सकता है। भक्त प्रह्लाद और ध्रुव के उदाहरण हमारे समक्ष हैं। मनीषी कहते हैं कि दिन-रात, चौबीसों घण्टे, आठों प्रहर प्रभु का नाम जपा जा सकता है। बस मनुष्य के मन में सच्ची भावना होनी चाहिए। उस मालिक को भक्ति का प्रदर्शन बिल्कुल भी पसन्द नहीं आता। वह चाहता है कि उसे चाहने वाले उसके पास सहज, सरल बनकर आएँ। उसके पास अपनी इच्छाओं की पूर्ति करने के लिए किसी तरह की सौदेबाजी न करने वाले हों।
         फिर भी ऐसा कहा जाता है कि प्रातःकाल भोर में उठकर प्रभु का ध्यान अथवा जप करना अधिक लाभदायक होता है। उस समय वातावरण शुद्ध होता है और मन प्रभु की भक्ति में सरलता से रम जाता है। उसके बाद दिन का उदय होने पर मनुष्य दुनियादारी के कामों में उलझ जाता है। तब वह उस मालिक का नाम उतनी श्रद्धा से नहीं ले पाता। उस समय मनुष्य चाहकर भी अपना ध्यान दुनिया के कारोबार से नहीं हटा पाता। वे उसका ध्यान लगने नहीं देते, बल्कि उसके मानस को भटकते रहते हैं।
         कहते हैं कि एक सन्त से किसी शिष्य ने प्रश्न पूछा, "महाराज, भगवान को तो किसी भी समय याद किया जा सकता है, तो फिर सारे सन्त व महापुरुष अमृत वेले में ही नाम जपने के लिए ही क्यों कहते हैं?"
       उन सन्त जी ने हँसकर अपनी आप बीती बताई, "बात उस समय की है जब मोबाइल फोन प्रचलन में नहीं थे। एस. टी. डी. बूथ हुआ करते थे या फिर अपने फोन से लोग कॉल बुक करवाते थे। रात को नौ बजे मुझे किसी को फोन करने की याद आई। जिसे उन्होंने फोन करना था, उसे अगली ही सुबह पाँच बजे कहीं बाहर जाना था। इसलिए उनका रात को ही उससे बात करना आवश्यक था। वे रात को ही फोन करने गए। कई बार फोन लगाया, पर हर बार यही जवाब मिलता कि इस रूट की सभी लाईने व्यास्त हैं'।"
         उस बूथवाले ने कहा," महाराज आप सुबह चार बजे आकर बात कर लेना, मैं दुकान खोल दूँगा।"      
        उन्होंने सुबह जाकर बात करने के लिए जब फोन मिलाया तो वह झट से मिल गया और उनकी बात हो गई। उन्होंने हैरानी से बूथवाले की ओर देखा तो वह बोला, "सुबह तीन बजे से लेकर छह बजे तक लाईने खाली होती हैं। इसलिए जल्दी बात हो जाती है।"
         अपना यह नवीन अनुभव सुनाते हुए सन्त जी ने कहा, "ऐसे ही आजकल सम्पूर्ण मानव जाति कलयुग के प्रभाव के कारण देर से जागती है। केवल कुछ ही लोग हैं, जो प्रभु के प्यारे हैं, वे अमृत वेले जागकर अपने मालिक के साथ सीधी लाईन जोडते हैं।"
        इस घटना का उल्लेख करने का यही उद्देश्य है कि ईश्वर की उपासना करने के लिए लोग बहुत प्रकार के यत्न करते हैं। कुछ लोग शहरों से दूर जंगलों में साधना करने के लिए चले जाते हैं और कुछ साधक पर्वतों की गुफाओं में जाकर अपनी धुनी रमाते हैं। कुछ लोग धरती के अन्दर बैठ जाते हैं, कुछ लोग पेड़ों पर लटक जाते हैं, कुछ लोग एक टाँग पर खड़े हो जाते हैं और कुछ लोग अपने चारों ओर आग जलाकर उसका घेरा बनाकर बैठते हैं। कुछ लोग मानते हैं कि घरबार छोड़कर तीर्थस्थानों पर जाने से प्रभु मिल जाता है। इस प्रकार साधक अपनी-अपनी सोच के अनुसार प्रभु की आराधना करते हैं।
          बहुत से विद्वानों का कथन है कि ईश्वर को पाने के लिए गुरु का होना बहुत आवश्यक है। निगुरा व्यक्ति परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता। यही कारण है कि भोले-भाले जनसाधारण उनके इस तर्क के चक्कर में तथाकथित धर्मगुरुओं के जाल में फँस जाते हैं। वे अपने धन और समय के साथ-साथ अपना जीवन भी बर्बाद कर लेते हैं। वे अनावश्यक ही अपने लिए खाई खोदकर मुसीबतें मोल ले लेते हैं।
          ईश्वर की भक्ति करने के लिए तीर्थस्थलों, जंगलों में जाने का कोई औचित्य नहीं। तथाकथित धर्मगुरुओं का पल्लू पकड़ने की कोई आवश्यकता नहीं। ईश्वर को पाने के लिए कहीं भी भटकने की आवश्यकता नहीं है। अपने हृदय रूपी मन्दिर को शुद्ध व पवित्र बनाइए क्योंकि हमारे हृदय में ही ईश्वर का वास है। वह सृष्टि के कण-कण में विराजमान हैं। उसकी छवि प्रकृति के हर कण में, हर जीव में देखी जा सकती है। अपने घर में शान्तिपूर्वक बैठकर, मन को एकाग्र करके, ध्यान लगाने से या ईश आराधना करने से वह सरलता से मिल जाता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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