सोमवार, 10 दिसंबर 2018

पिता का साया

वे बच्चे बहुत ही सौभाग्यशाली होते हैं जिनके सिर पर उनके पिता का साया बना रहता है। पिता है तो मनुष्य का अस्तित्व होता है। पिता और माता ही वे दो भगवान हैं जो मनुष्य को इस धरती पर लेकर आते हैं। बच्चे के सर्वांगीण विकास के लिए दोनों की आवश्यकता होती है। पिता के होने से बच्चों में अनुशासन बना रहता है। माता और पिता ही बच्चे को इस योग्य बनाते हैं कि वह समाज में अपना सिर ऊँचा करके चल सके और सुविधापूर्वक अपना जीवन यापन कर सके।
        हमारे महान ऋषि ने 'तैत्तरीयोपनिषद्' में हमें समझाते हुए कहा है-
                 पितृदेवो भव
अर्थात पिता को देवता मानो। कहने का तात्पर्य यह है कि मन्दिर में जाकर निर्जीव मूर्तियों की पूजा अवश्य करो, पर घर में जीवित देवता यानी पिता और माता की पूजा पहले करो। यहाँ पूजा करने का अर्थ है, उनकी अच्छी तरह देखभाल करना है, जैसे उन्होंने कभी अपनी सन्तान की थी। मनुष्य को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जब वे अशक्त होने लगें, तब उन्हें समय पर भोजन मिले, आवश्यकता होने पर दवा मिले। उनकी छोटी-छोटी जरूरतों को अपना धर्म समझकर, बिना माथे पर शिकन लाए पूरा किया जाए।
        बच्चे को यह अहसास होता है कि पिता के होने से वह सदा सुरक्षित है। उसे लगता है कि यदि उससे कुछ गलत हो जाएगा, तो पिता है न उसे बचाने के लिए, उसकी सुरक्षा करने के लिए। पिता के रहने से वह घर-गृहस्थी की चिन्ताओं से मुक्त रहता है। उसकी दृष्टि में उसके पिता का कद बहुत ऊँचा होता है जिसे कोई छू नहीं सकता। पिता के घर पर रहने से बच्चे अपने कार्य पर अच्छी तरह ध्यान दे सकते हैं क्योंकि उन्हें पता होता है कि घर में पिता बैठे हैं घर की और अगली पीढ़ी का ध्यान रखने के लिए।
         महाभारत के काल में जब पाण्डव वन में विचरण रहे थे, उस समय चलते हुए उन्हें प्यास लगी। चारों भाई बारी-बारी से एक तालाब के पास पानी लेने के लिए पहुँचे, तो उस तालाब के स्वामी यक्ष ने उनसे पानी लेने से पहले, उसके प्रश्नों का उत्तर देने के लिए कहा। उसके प्रश्नों का उचित उत्तर न देने के कारण अर्जुन सहित चारों भाई बेहोश हो गए। तब धर्मराज युधिष्ठिर वहाँ गए। उन्हें भी यक्ष ने पहले प्रश्नों का उत्तर देने के लिए कहा। यक्ष के अनेक प्रश्नों में से एक प्रश्न यह था कि "आकाश से ऊँचा कौन है?"
          इस प्रश्न के उत्तर में युधिष्ठिर ने कहा था, "पिता आकाश से ऊँचा है।"
          पिता का महत्त्व इसी बात से चलता है कि शास्त्रों में उसे शीर्ष स्थान पर रखा गया है। सन्तान चाहे भी तो उस आकाश को हाथ बढ़ाकर नहीं छू सकती। वह केवल उस आकाश को दूर से निहार सकती है और उसके जैसा बनने का प्रयास कर सकती है।
         पिता के विषय में 'नीतिशास्त्र' का यह कथन द्रष्टव्य है-
             स पिता यस्तु पोषक:। 
अर्थात् पिता वही है जो पोषक है।
          इस नीति वचन का तात्पर्य यह है कि पिता वही है जो अपने सारे सुखों का त्याग करके अपनी सन्तान का पालन-पोषण करता है। वह उसे कभी किसी वस्तु की कमी का अनुभव नहीं होने देता। अपनी सामर्थ्य से बढ़कर भी वह अपने बच्चों की सारी आवश्यकताओं को पूर्ण करता है, उन्हें हर प्रकार से योग्य बनाता है।
         'ब्रह्मवैवर्तपुराणम्' का यह कथन समीचीन है-
     सर्वेषामपि वन्द्यानां जनक: परमो गुरु:।
 अर्थात् सभी वन्दनीय जनों में पिता सर्वश्रेष्ठ है।
         इस संसार में बहुत से लोग पूजनीय होते हैं, जिनकी हम किसी भी कारण से वन्दना करते हैं। उनके आगे-पीछे घूमते रहते हैं, उनकी कही हुई बात को महत्त्व देते हैं। उन सबसे अधिक पिता की अर्चना करनी चाहिए, ऐसा ब्रह्मवैवर्त पुराण का आदेश है। मनुष्य के जीवन में जो स्थान पिता का है, उसे कोई नहीं ले सकता।
         प्रत्येक बच्चे का नैतिक दायित्व है कि वह अपने पिता का मान-सम्मान बनाए रखे। ऐसा कोई भी कार्य उसे नहीं करना चाहिए, जिससे उनके पिता को दूसरों के समक्ष कभी अपनी नजर नीची करनी पड़े।
चन्द्र प्रभा सूद
Email : cprabas59@gmail.com
Blog : http//prabhavmanthan.blogpost.com/2015/5blogpost_29html
Twitter : http//tco/86whejp

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें