बुधवार, 26 दिसंबर 2018

रुचिकर सुनना

हमें जो रुचिकर लगता है वही हम सुनना चाहते हैं। हम नहीं चाहते कि कोई व्यक्ति हमारी आलोचना करे। इसे हम एक इंसानी कमजोरी कह सकते हैं कि मनुष्य अपने प्रिय-से-प्रिय व्यक्ति का भी हस्तक्षेप अपने किसी मामले में पसंद नहीं करता।
           वह स्वयं चाहे दूसरों पर कितनी ही छींटाकशी क्यों न कर ले, उन्हें भला-बुरा कह ले परन्तु जब उसकी बारी आती है तो वह क्रोधित हो जाता है। वह सोचता है कि फलाँ व्यक्ति की हिम्मत कैसे हुई कि उसका विरोध करे? अपने विरोधियों को वह गाली-गलौज करता है, उन्हें पानी पी-पीकर कोसता है। ऐसा तो कदापि नहीं हो सकता कि जो अच्छा है, मीठा है वह हमारे हिस्से में आएगा और जो कटु है, कड़वा है वह दूसरे के हिस्से में रहेगा। बड़े-बुजुर्ग कहते हैं- 'बिना आईने के मनुष्य अपना चेहरा नहीं देख सकता।' अर्थात अपनी असलियत जानने के लिए उसे दूसरों की सहायता की आवश्यकता होती है।
          हमें तो वही अच्छा लगता है जिसमें हमारी प्रशंसा हो। घर-परिवार में, भाई-बन्धुओं में और समाज में हमारा कोई भी विरोध करने वाला न हो। सभी लोग हमारी प्रशस्ति में कसीदे पढ़ते रहें। हमारे अंदर जो भी बुराइयाँ हैं उन्हें अनदेखा करके सब लोग केवल हमारी अच्छाइयों के प्रशंसक बनें।
          इस सबको सोचने में, कल्पना करने में बहुत आनन्द आता है। परन्तु यदि हम इसे वास्तविकता के धरातल पर देख सकें तो यह कदापि सम्भव नहीं हो सकता।
          हम भगवान तो हैं नहीं कि हममें कोई बुराई नहीं होगी। हम इन्सान हैं गलतियाँ करना हमारी आदत है। हम समय-समय पर गलतियाँ करते रहते हैं और फिर बार-बार उसके लिए क्षमा याचना करते हैं। जब हम पूर्ण नहीं हैं तो हमारी आलोचना होना भी स्वाभाविक है। हम इस समस्या से कभी बच नहीं सकते।
         ईश्वर जो पूर्ण है उस पर भी अकारण दोषारोपण करने से नहीं चूकते तो फिर दूसरों से यह आशा किस प्रकार रख सकते हैं कि हमारी मूर्खताओं के बावजूद भी वे हमें अपमानित नहीं करेंगे।
         अपनी टीका-टिप्पणी होने पर मनुष्य को कभी घबराना नहीं चाहिए। विपरीत परिस्थिति होने पर उसे सदैव डटकर सामना करना चाहिए, अपने आलोचकों को सम्मान देना चाहिए। ये वही लोग हैं जो उसकी कमियों को चुन-चुनकर दूर करने में उसकी सहायता करते हैं। यदि मनुष्य इसे सकारात्मक दृष्टिकोण से देखे तो वह अपने अन्दर विद्यमान कमजोरियों को नियन्त्रित  करके अपने भावी जीवन को सफल बना सकता है। इन निन्दकों को  शुभचिन्तक कहा है-
निन्दक नियरे राखिए आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी-साबुन बिना निर्मल करे सुभाय॥
ये लोग मनुष्य के अंतस के दोषों को दूर करने में सहायक होते हैं। इसलिए इनसे घृणा करने के बजाय उन्हें अपना हितैषी मानना चाहिए।
          यदि मनुष्य ऐसा सोच ले तो उसे अपनी निन्दा होने पर दुख नहीं होगा बल्कि उसे उन सब लोगों की तुच्छ मानसिकता के विषय में सोचकर कष्ट होगा जो अपना मूल्यवान समय अनावश्यक ही दूसरों की बुराई करने में बरबाद करते हैं। तब अपनी प्रशंसा सुनकर उसे न तो प्रसन्नता होगी और न ही अपनी निन्दा सुनकर वह कभी विचलित होगा।
           अपने प्रति हुए ऐसे व्यवहार पर वह आनन्दित होगा और उससे सदा ही प्रेरणा लेता हुआ नित्य ही उन्नति के शिखर पर पहुँच जाएगा।
चन्द्र प्रभा सूद
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