शनिवार, 8 दिसंबर 2018

भाग्य और पुरुषार्थ

मनुष्य को जीवन में सुख-समृद्धि, यश आदि मिलेंगे अथवा अपयश, निराशा या परेशानी मिलेगी, इस विषय में संसार में किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं है। यह सब भविष्य के गर्भ में छुपा हुआ है। इस सबके विषय में यदि कोई जानता है, तो वह है परमपिता परमात्मा क्योंकि वही इस संसार का नियन्ता है। इस सत्य से हम मुँह नहीं मोड़ सकते कि हमारे पूर्वजन्म कृत कर्मों के अनुसार ही हमारा भाग्य निर्धारित होता है। फिर उसी के अनुरूप ही हमें समयानुसार बिनकहे, बिनमाँगे सब कुछ प्राप्त हो जाता है।
          पुरुषार्थ और भाग्य के जटिल विषय को एक उदाहरण के द्वारा समझने का प्रयास करते हैं। हम सबका किसी-न-किसी बैंक में लॉकर तो होता ही है। हम जानते हैं कि हर लॉकर की दो चाबियाँ होती हैं। एक चाबी हमारे अपने पास रहती है और दूसरी चाबी बैंक के मैनेजर के पास रहती है। जो चाबी हमारे पास रहती है उसे हम पुरुषार्थ की कुञ्जी कह सकते हैं। मैनेजर के पास रहने वाली चाबी भाग्य की है। जब तक दोनों चाबियाँ एकसाथ नहीं लगतीं, तब तक लाॅकर का ताला नहीं खुल सकता।
        इस तरह हम मनुष्य कर्मयोगी हैं यानी कर्म करते रहते हैं। मेहनत करते हैं और धन अर्जित करते हैं। उससे आभूषण आदि खरीदते हैं। फिर अपनी उस जमा पूँजी बैंक के लॉकर में सम्हालकर रख देते हैं। बैंक का मैनेजर भगवान की तरह है, जो हमारे भाग्य की चाबी को सम्हाकर रखता है। जब हमें आवश्यकता होती है, हम बैंक जाते हैं और अपने लॉकर से अपनी उस जमा पूँजी को निकल सकते हैं। यदि बैंक जाते समय अपनी चाबी न लेकर जाएँ, तो कितना भी जोर लगा लें, अपने लॉकर से कुछ भी नहीं निकाल सकते। तब हमारे बैंक जाना व्यर्थ हो जाता है।
        हम मनुष्यों को अपनी वाली यानी पुरुषार्थ वाली चाबी लगाते रहना चाहिए। पता नहीं वह मालिक कब अपनी यानी भाग्य वाली चाबी लगा दे। उस समय ऐसा न हो कि भगवान हमारे लिए भाग्यवाली चाबी लगा रहा हो और हम अपनी परिश्रम वाली चाबी न लगाना भूल जाएँ। यदि ऐसा हो गया तो हमारा सफलता तथा सुख-समृद्धि वाला ताला खुलने से रह जाएगा। यानी हमारी उन्नति का द्वार नहीं खुल सकेगा और इस तरह अपनी मूर्खता से हम एक स्वर्णिम अवसर खो देंगे। जिन्दगी में फिर दूसरा ऐसा मौका हमें मिलेगा या नहीं, हम नहीं जानते। इसलिए हमें सदा अपना कर्म यानी परिश्रम करते रहना चाहिए।
          पुरुषार्थ और भाग्य दोनों मिलकर मनुष्य को चलाते हैं। अकेले परिश्रम करते रहने से मनुष्य को उतना फल नहीं मिल पाता, जितना उसके प्रारब्ध के उदय होने पर मिलता है। प्रतिदिन हम अपने आसपास देखते हैं कि कितने लोग ऐसे हैं जो दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करके भी अपने और अपने परिवार के लिए दो जून का भोजन भी नहीं जुटा पाते। इसका स्पष्ट कारण यही है कि उनके भाग्य का अभी तक उदय नहीं हुआ है। दूसरी और वे लोग भी हैं, जो शून्य से जीवन को आरम्भ करते हैं और देखते-ही-देखते अपार धन-वैभव के स्वामी बन जाते हैं। इसका अर्थ यही होता है कि उनका भाग्य उस समय प्रबल होता है, इसीलिए वे इस मुकाम तक पहुँच जाते हैं।
         इसी प्रकार अनेक उदाहरण भी हमारी दृष्टि में आते हैं कि बहुत से ऐसे भाग्यहीन बच्चे होते हैं, जिन्हें पैदा होते ही माता किसी अनाथालय में छोड़ देती है अथवा किसी को गोद दे देती हैं। वही भाग्यहीन बच्चे जिस घर के लोगों द्वारा गोद लिए जाते हैं, वहाँ हर प्रकार के सुखों का उपभोग करते हैं। उन्हें उत्तराधिकार में अकूत धन-वैभव मिलता है। यह सरल-सा गणित है। उन बच्चों को अपने माता-पिता से सुख नहीं तिरस्कार मिलता है, पर उसके बाद उनके शुभकर्मों का उदय होता है। तभी उन्हें वैसे परिवार मिल जाते हैं, जहाँ उन्हें पूरा प्यार-दुलार मिलता है। वे पढ़-लिखकर योग्य बनते हैं, फिर नौकरी या खानदानी व्यापार करते हैं।
         पुरुषार्थ और भाग्य के विषय में विवेचना करते हुए हम यही कह सकते हैं कि पुरुषार्थ के बिना भाग्य फलदायी नहीं होता। इसी तरह भाग्य साथ न दे तो कितना ही परिश्रम किया जाए, वह फलदायक नहीं हो सकता। जिस समय भाग्य प्रबल होता है, उस समय किया गया परिश्रम चमत्कार करता है।
चन्द्र प्रभा सूद
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