शनिवार, 22 दिसंबर 2018

समाज का प्रिय

समाज को यदि परिभाषित करना हो तो कह सकते हैं कि हम मनुष्यों से मिलकर ही यह समाज बनता है। मनुष्य अकेला नहीं रह सकता यानी समाज से कटकर नहीं रह सकता, इसलिए वह सबके साथ मिलजुलकर रहता है। इस समाज से बहुत कुछ लेता है और बहुत कुछ देता भी है। इसी तरह समाज चलता है और हर प्रकार के सामाजिक कार्य किए जाते हैं। यदि किसी का सहयोग करने की शक्ति अथवा क्षमता न हो तो कोई बात नहीं। किसी का अनिष्ट करने के विषय में कदापि नहीं सोचना चाहिए। कर्म करना मनुष्य का कर्त्तव्य है, उसका भाग्य है। उसे मन, वचन और कर्म से सबका हित करना चाहिए। इसके विपरीत किसी का मन, वचन और कर्म से बुरा सोचना या करना उसका दुर्भाग्य होता है ।
           आवश्यक नहीं कि हर व्यक्ति की इतनी हैसियत हो कि वह किसी को कुछ दे सके या किसी की सहायता कर सके। कुछ लोग सम्पन्न होते हुए भी किसी की सहायता नहीं करना चाहते। ऐसे लोग पैसा होते हुए भी मन से गरीब होते हैं। मनुष्य को न किसी से कुछ छीनकर लेना चाहिए और न ही किसी से कुछ माँगना चाहिए। इससे मनुष्य को बचना चाहिए। यदि मनुष्य किसी को कुछ दे नहीं सकता तो दूसरे लोगों को अपना आशीर्वाद अथवा शुभकामनाएँ तो दे ही सकता है। इसमें न तो कोई मोल लगता है और न ही इससे अपना कोई नुकसान होता है।
           रिश्ते बड़े भाग्य से मनुष्य को ईश्वर से वरदान स्वरूप मिलते हैं। इन रिश्तों का मान रखना चाहिए। इन्हें प्रेमपूर्वक निभाना चाहिए। प्रयास यही करना चाहिए कि इनमें दरार न आए। यदि किसी कारणवश उनमें खटास आने की नौबत आ जाए या उनके टूटने की स्थिति बन जाए, उस समय यदि रिश्ते निभाने के सभी दरवाजे बन्द हो जाएँ तो भी एक दरवाजा यानी बातचीत का दरवाजा सदा खुला रखना चाहिए। ताकि वार्तालाप की सम्भावना बनी रहे। इससे शायद कभी सम्बन्ध सुधर जाएँ। ताकि लोग उस व्यक्ति विशेष की अन्तिम यात्रा में भी सम्मिलित हो सकें ।
            यदि कोई हमारे साथ दुर्व्यवहार कर रहा हो तो उसका अहित करने से अच्छा है कि हम अपना रिश्ता और रास्ता ही बदल लें अथवा चुप्पी साधकर उससे किनारा कर लें। अपने मन को समझा लें कि हमारे साथ जो भी अच्छा या बुरा हो रहा है, वह हमारा प्रारब्ध है। जो लोग दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करते हैं, उन लोगों के साथ वह परम न्यायकारी परमात्मा स्वयं न्याय करता है। हम क्यों परेशान होते हैं? वही उन्हें अपनी भाषा में उत्तर देता है। मनीषी कहते हैं कि उसकी लाठी में आवाज नहीं होती।
           ईश्वर सभी को उनके कर्मानुसार दण्ड देता है। उसके दण्ड से बचने का प्रयास हम मनुष्य कर सकते हैं। शर्त यह है कि हम अपने मन, वचन औऱ कर्म से कभी किसी प्राणी बुरा न करें। नहीं तो उनमें और हममें क्या अन्तर रह जाएगा। हमारी अच्छाई कहीं खो जाएगी और उनकी बुराई तो प्रत्यक्ष है ही। परमात्मा के बनाए हुए नियम को तोड़कर स्वयं को सर्वोपरि समझने वालों के मन में एक बार भी ऐसा विचार नहीं आता कि वह परमात्मा से बड़े नहीं हो सकते।जो बना सकता है, वह पलक झपकते ही मिटा भी सकता है ।
            रावण, हिरण्यकश्यप आदि कितने ही ऐसे अहंकारी राजा हुए जो स्वयं को ईश्वर से भी बड़ा मानते थे। अपने प्रिय जनों और जनता पर मनमाने अत्याचार करते रहे। किसी को अपने समक्ष कुछ न समझने वालों उनका अन्त भी तो हो गया। मनुष्य कितनी ही तपस्या कर ले, कितने ही वरदान प्राप्त कर ले, वह उस मालिक का मुकाबला कभी नहीं कर सकता। न ही वह उससे बड़ा बन सकता है। मनुष्य आखिर है तो उसी प्रभु की सन्तान है। सन्तान किसी भी तरह से अपने माता-पिता से बड़ी या श्रेष्ठ नहीं हो सकती।  इसी तरह उस ईश्वर के सामने सिर तानकर खड़े होना उसकी मूर्खता ही कहलाएगी। अपने अहंकार के कारण वह उस परम मालिक के समक्ष बौना ही कहलाएगा।
           संसार में रहते हुए मनुष्य को झुककर रहना सीखना चाहिए, विनम्र बनकर रहना चाहिए। जो पेड़ तनकर खड़े रहते हैं, वही तूफान आने पर टूटकर गिरते हैं। इसके विपरीत जो झुक जाते हैं, वे किसी भी तूफान का सामना करके खड़े रहते हैं।  हर उस वस्तु को मनुष्य पा सकता है जिसकी वह कामना करता है। चाहे मनुष्य हो अथवा चाहे ईश्वर, वह सबका प्रिय बन सकता है। ऐसा व्यक्ति ही समाज का सिरमौर बनता है, इसमें कोई भी संदेह नहीं है।
चन्द्र प्रभा सूद
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