मंगलवार, 11 दिसंबर 2018

जन्म-मरण के बन्धन

जीव के जन्म-मरण के बन्धन तभी कटते हैं जब ईश्वर की उपासना श्रद्धा और सच्चे मन से की जाए। केवल ईश्वर का नाम तोते की तरह रटने से कुछ नहीं होने वाला। वह मालिक मनुष्य की श्रद्धा और उसकी भावना से परखता है। जब मनुष्य सच्चे मन से उसे पुकारता है, तभी उसके पास जाने के लिए एक कदम बढ़ाता है। उस प्रभु को स्मरण करने के लिए मन के शुद्धिकरण की महती आवश्यकता होती है।
          इस विषय में एक बोधकथा की चर्चा करना चाहूँगी। इसे कहीं पढ़ा था, पर उसमें लेखक का नाम नहीं लिखा हुआ था। इसे कुछ सुधार करके प्रस्तुत कर रही हूँ। कथा इस प्रकार है-
        एक पण्डित जी प्रतिदिन अपने देश की रानी को कथा सुनाया करते थे। कथा के अन्त में वे कहते थे, "राम कहे तो बन्धन टूटे।"
        तभी पिंजरे में बन्द तोता बोलता, "ऐसे मत कहो रे झूठे पंडित।"
         पण्डित जी को क्रोध आता, "ये सब लोग क्या सोचेंगे और रानी क्या कहेंगी?"
        एड दिन पण्डित जी अपने गुरु के पास गए और उन्हें सारा हाल बताया। गुरु जी तोते के पास गए और उन्होंने उससे पूछा, "तुम ऐसा क्यों बोलते हो?"
          तोते ने कहा, "मैं पहले खुले आकाश में उड़ता था। एक बार मैं एक आश्रम में गया, जहाँ सब साधू-सन्त राम-राम बोल रहे थे, तो मैंने भी राम-राम बोलना शुरू कर दिया। एक दिन मैं उसी आश्रम में राम-राम बोल रहा था, तभी एक सन्त ने मुझे पकड़ कर पिंजरे में बन्द कर लिया। फिर उसने मुझे एक-दो श्लोक भी सिखाये। आश्रम में एक सेठ ने मुझे सन्त को कुछ पैसे देकर खरीद लिया। अब सेठ ने मुझे चाँदी के पिंजरे में रखा, मेरा बन्धन बढ़ता गया। निकलने की कोई सम्भावना ही न रही। एक दिन उस सेठ ने राजा से अपना काम निकलवाने के लिए मुझे राजा को भेंट में दे दिया। राजा ने खुशी-खुशी मुझे अपने महल में रख लिया क्योंकि मैं राम-राम बोलता था। रानी धार्मिक प्रवृत्ति की थी, राजा ने मुझे रानी के हवाले कर दिया। अब आप ही बताइए, मैं कैसे कहूँ कि ‘राम-राम कहने से बन्धन छूटते हैं।"
          तोते ने उन गुरु जी से कहा, "आप ही कोई युक्ति बताइए जिससे मेरा बन्धन छूट जाए।"
          गुरु जी बोले, "आज तुम चुपचाप सो जाओ, बिल्कुल हिलना नहीं। रानी समझेगी तुम मर गए हो और वह तुम्हें छोड़ देगी।"
          ऐसा ही हुआ। दूसरे दिन कथा के बाद जब तोता नहीं बोला, तब सन्त ने आराम की साँस ली। रानी ने सोचा तोता तो गुमसुम पड़ा है, शायद मर गया है। उसने पिंजरा खोल दिया, तभी तोता पिंजरे से निकलकर उड़ गया।
          इस कथा को कहने का यही अर्थ है कि केवल मालिक का नाम रटते रहने से बात नहीं बनती। उसे अच्छी तरह समझकर उसके अनुसार आचरण करने से ही भला होता है। तोते में यदि अपनी बुद्धि होती तो वह उस पिंजरे के बन्धन को काटकर कब का स्वतन्त्र हो जाता। उसने केवल रटने का कार्य किया, इसीलिए वह अपने बन्धन से मुक्त नहीं हो सकता।
         हम मनुष्यों की भी यही समस्या है कि हम ईश्वर का नाम केवल रटते रहते हैं। उस नाम को अपने जन्म-मरण को काटने का साधन नहीं बनाते। इसीलिए चौरासी योनियों के चक्कर फँसे रहते हैं और आवागमन के चक्र भटकते रहते हैं। चाहिए तो यह था कि मानव जन्म पाकर, अपने इस जीवन को सफल बनाते। इस शरीर रूपी रथ को साधन बनाकर अपनी आत्मा को परमपिता में एकाकार करने के लिए उपाय करते।
          बहुत दुख की बात है कि हम इस दुनिया की चकाचौंध में इस कदर खो गए हैं कि उस मालिक की ओर हमारा ध्यान ही नहीं जाता। जितना हम उससे दूर होते चले जा रहे हैं, उतना ही कष्टों और परेशानियों को गले लगा रहे हैं। हमें बिल्कुल भी पता नहीं चलता कि हम अनजाने में स्वयं ही अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने का मूर्खतापूर्ण कार्य कर रहे हैं। बहुत से लोग ऐसे हैं जो उस मालिक की सत्ता को स्वीकार नहीं करते और उसको मानने वालों का उपहास करते हैं।
         इससे भी बढ़कर बात तब होती है, जब किसी कष्ट या परेशानी का सामना हम अपनी गलतियों से करते हैं और उस प्रभु को दोष देते हुए उसे लानत-मलानत करते हैं। यह सब करते हुए हमें जरा भी ग्लानि नहीं होती, बल्कि बहुत प्रसन्न होते हैं। अन्त में इतना ही कहना चाहूँगी कि केवल मानव को ईश्वर ने अपनी उपासना करके मोक्ष पाने का अधिकार दिया है। इस जीवन को यूँ ही व्यर्थ न गँवाकर उसका सदुपयोग करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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