मंगलवार, 1 जनवरी 2019

मन रूपी जिन्न

 हमारा मन अल्लादीन के जादुई चिराग से निकलने वाले जिन्न की तरह है। उसमें उठने वाले अनेक प्रकार के विचार उस जिन्न की भाँति शक्तिशाली होते हैं। जिस तरह जिन्न चिराग के अन्दर रहता तो है, परन्तु किसी को दिखाई नहीं देता, उसी प्रकार हमारे शरीर में छिपा हुआ मन भी हमें दिखाई नहीं देते। जब जादुई चिराग को रगड़ते हैं तो एक जिन्न प्रकट होता है। फिर वह गुलाम बनकर चिराग के मालिक की इच्छाओं को सिर झुकाकर पूर्ण करता है।
          इसी प्रकार मन रूपी जिन्न को जब मनुष्य मथता है, तब वह उसका गुलाम बनकर उसके इशारों पर तब नाचता है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जब उसे नियन्त्रित किया जाए, तभी वह मनुष्य के कथनानुसार झुक-झुककर उसके कार्य करता है। यदि उसे चलाने में मनुष्य से जरा-सी भी चूक हो जाए तो वह मनुष्य को बर्बाद करके ही दम लेता है।
         यहाँ एक कहानी याद आ रही है, जिसे कभी बचपन में सुना था। आप सबने भी उसे सुना ही होगा। कहते हैं एक बार एक सेठ के पास के पास एक जिन्न आया। उसने सेठ से कहा, "मुझे नौकरी की तलाश है। क्या आप मुझे नौकरी दोगे?"
         सेठ को काम करने वाले एक कर्मचारी की आवश्यकता थी। उसने पूछा, "तुम वेतन क्या लोगे?
         जिन्न ने उत्तर दिया, "मुझे कोई वेतन नहीं चाहिए। सिर्फ दो समय का खाना और रहने की जगह मिल जाए तो मैं दिन-रात कार्य करने के लिए तैयार हूँ।"
           सेठ मन-ही-मन प्रसन्न हो गया। उसे मुफ्त में काम करने के लिए नौकर मिल रहा था। अब भला उसे और क्या चाहिए था। सेठ ने उसे काम पर रखने के लिए हाँ कर दी।
         इस पर जिन्न ने कहा, "सेठ जी, मेरी एक शर्त है।"
         सेठ ने उससे पूछा, "शर्त क्या है?
         जिन्न ने उत्तर दिया, "मैं खाली बिल्कुल नहीं बैठ सकता। मुझे हर समय कम चाहिए। जिस समय आप मुझे काम नहीं दोगे, उस समय मैं तुम्हारा सिर फोड़ दूँगा।"
         सेठ ने मन में सोचा कि घर और दुकान में इतना काम है। इसके खाली बैठने का तो प्रश्न ही नहीं उठता। उसने प्रसन्न होते हुए कहा, "मुझे तुम्हारी शर्त मंजूर है।"
          अब जिन्न काम करने लगा। उसके काम करने की गति इतनी अधिक थी कि सेठ परेशान होने लगा कि अब वह उसे क्या काम दे? उसे परेशानी में देखकर किसी सयाने ने उससे उसकी उदासी का कारण पूछा। तब सेठ ने उसे सारी बात बता दी। उस व्यक्ति ने सेठ को बहुत ही बढ़िया उपाय बताया, "एक सीढ़ी बनवा लीजिए। जब कोई काम न हो तो उसे कहिए कि इस सीढ़ी पर चढ़ो और उतरो।"
           इस तरह सेठ को उसकी मुसीबत का हल मिल गया। उसकी साँस में साँस आ गयी। उसने उस व्यक्ति को धन्यवाद दिया।
           हमारा अपना मन भी ठीक इसी जिन्न तरह आचरण करता है। यदि उसे काम में लगाकर व्यस्त रखा जाए तो वह ठीक रहता है। उस स्थिति में इस मन में सकारात्मक विचारों का साम्राज्य रहता है। मनुष्य अपनी योग्यता का सदुपयोग करता हुआ सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ता रहता है। ऐसा व्यक्ति अपने सद्व्यवहार से शत्रु को भी अपना मित्र बनाने की सामर्थ्य रखता है।
         इसके विपरीत यदि इस मन को मनमर्जी करने की छूट दे दी जाए तो वह सब तहस-नहस कर देता है। वह अनावश्यक जोड़-तोड़ करता है। तब मनुष्य के मन में नकारात्मक विचारों का उदय होने लगता है। सदा पिष्टपेषण करता हुआ वह धीरे-धीरे अवसाद में घिरने लगता है। अपने ही प्रियजनों को अपने दुर्व्यवहार से स्वयं से दूर कर बैठता है।
          कहने का तात्पर्य है कि यह मन ही मनुष्य के उत्थान और पतन का कारण होता है। वही उसके मोक्ष और बन्धन का कारक भी बनता है। उपनिषदों के अनुसार मन आत्मा रूपी सारथी के रथ की लगाम कहलाता है। यदि बुद्धि रूपी सारथी इस लगाम को कसकर रखता है तो इन्द्रिय रूपी घोड़े सही मार्ग पर चलते हैं। तभी आत्मा रूपी यात्री मोक्ष को प्राप्त करता है।
          दुसरीं मन रूपी लगाम को न कसने पर इन्द्रियाँ कुमार्ग पर चलती हैं और यात्री अपने मार्ग से भटक जाता है। वह चौरासी लाख योनियों के चक्कर में फँसा रहता है। मन रूपी जिन्न से कुछ पाने के लोभ का परित्याग करना श्रेयस्कर होता है, उसके जाल में नहीं उलझना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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