मंगलवार, 15 जनवरी 2019

झूठन नहीं छोड़ें

हमारे शास्त्र एवं मनीषी अन्न को ब्रह्म कहते हैं अर्थात उसे ईश्वर का ही रूप बताते हैं। यह अन्न ही जीवों की जीवनी शक्ति है। इसी से हमारा शरीर पुष्ट होता है। इसी अन्न को पाने के लिए मनुष्य दिन-रात हाड़-तोड़ मेहनत करता है। दो जून भोजन पाने के लिए कोल्हू का बैल बन जाता है। तब जाकर कहीं उसे भोजन नसीब होता है। इतने परिश्रम से कमाए गए अन्न की बर्बादी करना सर्वथा अनुचित है। इस बात का ध्यान गृहणियों को सदा रखना चाहिए कि वे आवश्यकता से अधिक भोजन न पकाएँ, जिसे फैंकने की नौबत आ जाए।
        इसलिए अथक परिश्रम से कमाए हुए अन्न से पकाए भोजन को अपनी थाली में उतनी ही मात्रा में परोसना चाहिए, जितने की हमें आवश्यकता हो। जिसे हम खाकर समाप्त कर सकें। अनावश्यक ही लालच में आकर अथवा दूसरे लोगों की होड़ करते हुए इतना अधिक भोजन थाली में नहीं डाल लेना चाहिए, जिसे हम न खा न सकें। उसे हमें व्यर्थ ही नाली में फैंकना पड़ जाए। ऐसा करने से अन्न का बहुत अपमान होता है। अन्न का यह अपमान हम पर बहुत भारी पड़ता है।
          थाली या प्लेट में झूठन छोड़ना पाप माना जाता है। अन्न को झूठा नहीं छोड़ें, शायद इसलिए उसे पाप की संज्ञा दी गई है कि लोग डरें और अन्न को व्यर्थ ही बर्बाद न करें। फिर भी बहुत से लोग ऐसे हैं, जो थाली में झूठन छोड़ने को अपनी शान समझते हैं। शायद वे इसे अपना स्टेटस सिम्बल मानते हैं। शादी-पार्टियों में अन्न की बर्बादी को प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। लोग अपनी प्लेट को इतना भर लेते हैं जैसे उन्हें फिर खाने के लिए नहीं मिलेगा। ऐसा लगता है कि यहीं पर उन्हें पहली और आखिरी बार खाने के लिए मिलेगा। उतना खा नहीं सकते तो फिर उसे कूड़े में फेंक देते हैं। उनकी इस मानसिकता का कारण मुझे आज तक समझ में नहीं आया।
        शायद इसका कारण हो सकता है कि लोगों के पास पैसा अधिक आ रहा है। इसलिए वे पैसे का महत्त्व नहीं समझते और उसे अहमियत नहीं देते। उनकी मानसिकता यही बनती जा रही है कि वे पैसे से सब कुछ खरीद सकते हैं। यही कारण है कि आजकल लोग अन्न की तुलना पैसे से करने लगे हैं। तभी वे झूठन छोड़ते हैं और उसे फैंकते समय उनके मन को जरा भी कष्ट नहीं होता। वास्तविकता इसके विपरीत होती है। वे भूल जाते हैं कि अपने भारत में ही करोड़ों लोग ऐसे हैं, जिन्हें एक समय का भोजन भी उपलब्ध नहीं होता। इससे भी अधिक दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि कुछ लोग कचरे में से बीनकर खाते हैं। उनकी दुरावस्था को देखकर भी हम नहीं जाग पाते।
         हमारे पास पैसा है और हम अन्न तो क्या दुनिया की हर वस्तु खरीद सकते हैं, यह अहंकार मनुष्य को ले डूबता है। ईश्वर को अच्छा नहीं लगता कि मनुष्य अन्न का अपमान करे। धरती जो अपनी छाती चीरकर हम मनुष्यों को अन्न देती है, वह भी दुःखी होती है। हमारे मनीषी मानते हैं कि अन्न का तिरस्कार करने वालों को अगले जन्म में उसी अन्न के लिए तरसना पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वे अन्न के एक-एक दाने के लिए तरसते हैं। उन्हें खाने के लिए भोजन नहीं मिलता। तब वे अपनी लाचारी पर खून के आँसू रोते हैं। वे दूसरों का मुँह ताकते रहते हैं कि कोई दया करके उन्हें थोड़ा-सा भोजन खिला दे।
         अन्न का अपमान करने वालों को इस जन्म में भी दण्ड मिलता है। उनका शरीर ऐसे रोगों का घर बन जाता है, जिनके कारण सब कुछ होते हुए भी न तो वे अन्न को खा पाते हैं और न ही उसे पचा पाते है। ऐसे समय में उनके अपार धन-दौलत का घमण्ड धरा-का-धरा रह जाता है। सब लोग मेज पर बैठाकर स्वादिष्ट खाना या पकवान खाते हैं और वे मूकदर्शक बने उस खाने को केवल देखते रहते हैं। थोड़ा-बहुत जो वे खा लेते हैं, उसे पचाने के लिए भी उन्हें दवाइयाँ खानी पड़ती हैं।
        आज भी बहुत से लोगों याद होगा, जब कुछ दशक पूर्व पाकिस्तान के साथ हमारे देश का युद्ध हुआ था, उस समय हमारे देश मे अन्न का संकट उत्पन्न हो गया था। गेहूँ, चीनी, चावल, सूजी, मैदा आदि सभी राशन पर मिलते थे। राशन की दुकानों पर लम्बी-लम्बी लाइनें लगती थीं। ओपन मार्किट में कुछ भी उपलब्ध नहीं था। विदेशों से लाल गेहूँ मंगया गया था। जिसका भुगतान बहुत समय तक करना पड़ा था। तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्री लाल बहादुर शास्त्री जी ने उस समय 'जय जवान, जय किसान' का नारा दिया था। उन्होंने देश से अपील की थी कि सप्ताह में एक समय का अन्न बचाएँ। उसके स्थान पर फल, आलू, शक्कर कन्द आदि खाएँ।
          ऐसी स्थिति देश में दुबारा न आए, इसके लिए सबको मिलकर प्रयास करना चाहिए। अन्न को व्यर्थ ही बर्बाद करने के स्थान पर उसे जरूरतमन्द को खिलाना चाहिए। घर में पार्टी आदि के बाद जो भी भोजन बच जाए उसे अपने आसपास गरीब लोगों को खिला देना चाहिए या किसी अनाथ आश्रम में दे आना चाहिए। अन्न का महत्त्व अपने बच्चों को भी समझना चाहिए ताकि उनके मन में गहरे बैठ जाए कि भोजन को व्यर्थ न करें। इस तरह नई पीढ़ी के मन में अन्न का सम्मान करने की भावना जागृत हो जाएगी। बड़े होकर वे अन्न को बचाएँगे।     
चन्द्र प्रभा सूद
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