गुरुवार, 17 जनवरी 2019

ईश्वर के नाम की कमाई

तिनका-तिनका जोड़कर मनुष्य अपने जीवनकाल में स्वयं के लिए तथा अपने परिवारी जनों के लिए धन-दौलत, मोटर-गाड़ियाँ और सारे ऐश्वर्य के साधन जुटाता है। वस्त्रों का भण्डार एकत्र करता है। सोने-चाँदी, हीरे जवाहरात के आभूषण खरीदता है। उन सबको देख-देखकर प्रसन्न होता है। पर वही इन्सान जब इस दुनिया से विदा होकर परलोक की यात्रा के लिए निकल पड़ता है, तब उसके द्वारा इस्तेमाल किए गए सभी सामान यानी उसके पहने हुए कपड़े, उसका बिस्तर, उसके जूते-चप्पल आदि उसी के साथ ही तत्क्षण घर से निकालकर बाहर रख दिए जाते है या किसी को दे दिए जाते हैं। उसकी अलमारी में रखे सभी वस्त्र, जूते, चप्पल आदि किसी को दे दिए जाते हैं।
          मृत व्यक्ति को कुछ घण्टे भी घर में न रख सकने वाले बन्धुजन उस व्यक्ति के पहने हुए वस्त्रों के साथ आभूषण तक उतार लेते हैं। परन्तु उसके द्वारा कमाई गई धन-दौलत, उसके गाड़ी-बंगले को किसी को न देकर उसके बच्चे आपस में बाँट लेते हैं। उसके लिए लड़ाई-झगड़ा करते हैं। मरने वाले अपने प्रियजन से अधिक उन्हें उसकी वसीयत चिन्ता सताती है। सब कुछ पा लेने के पश्चात भी वे यही कहते हैं कि 'हमें क्या दिया है?'
          हम समाचार पत्र में, टी. वी. एवं सोशल मीडिया पर बहुत बार ऐसी खबरें आती हैं कि किसी भी प्रकार की दुर्घटना घटने पर लोगों की घड़ियाँ, मोबाइल, पर्स व आभूषण की लूटमार कुछ असामाजिक तत्व करते हैं। उनके मन में शायद जरा भी संवेदना नहीं होती, तभी वे इस प्रकार का दुष्कर्म करते हैं। मृतकों एवं घायलों के साथ किया जाने यह दुष्कृत्य निन्दनीय होता है। फिर भी वे ऐसा करते हैं।
          मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि मृतक कितना भी प्रिय हो, उसे घर में कुछ घण्टे रख पाना भी कठिन होता है, परन्तु उसकी मेहनत से कमाई हुई धन-दौलत व प्रॉपर्टी को उसके परिवारी जन समेट लेते हैं। उसकी बदौलत अपनी इच्छाओं की पूर्ति करते हैं। बड़े दुख की बात है कि वे उसका साथ नहीं निभा पाते। मनुष्य को अकेले ही इस संसार से विदा लेनी होती है। यह विडम्बना ही है कि जिनके लिए वह सारा जीवन खटता रहता है, उनमें से कोई भी उसका साथ देने के लिए खड़ा नहीं होता।
       इसी भाव को लेकर कबीरदास जी ने बहुत सटीक लिखा है -
         हाड़ जले ज्यूँ लाकड़ी,
         केस जले ज्यूँ घास।
         कंचन जैसी काया जल गई,
         कोई न आयो पास।
         जगत में कैसो नातो रे,
         कोई न रह्यो साथ।
अर्थात् मनुष्य का शरीर लकड़ी की तरह जलता है, उसके बल घास की तरह जल जाते हैं। सोने जैसा मनुष्य का शरीर जब जल रहा होता है, उस समय कोई उसके पास नहीं आता। वे प्रश्न करते हैं कि संसार के लोगों से मनुष्य का किस प्रकार का रिश्ता है कि उसके अन्तिम समय में कोई भी उसके साथ नहीं होता।
          इसलिए दुनिया में रहते हुए अपने दायित्वों का निर्वहण सच्चाई और ईमानदारी से करना चाहिए। इस सत्य को सदा स्मरण रखना चाहिए कि जैसे मुट्ठी बाँधे खाली हाथ मनुष्य अकेले ही इस दुनिया में आया था, वैसे ही मुट्ठी बाँधे खाली हाथ इस संसार से विदा भी होना पड़ेगा। मनुष्य इस संसार में वह जो भी स्याह-सफेद करता है, उसे उनका फल स्वयं ही भोगना पड़ता है। उसकी धन-सम्पत्ति को उसके परिवारी जन बाँट लेते हैं, पर उसके किए गए शुभाशुभ कर्मो का साथी कोई नहीं बनता।
          इस सब पर विचार करने के बाद यही विचार मन में आता है कि मनुष्य का ही सच्चा साथी ईश्वर है। वही है जो कैसी भी परिस्थिति हो, उसका साथ निभाता है। उसके नाम का जाप करने से मनुष्य को कभी निराश नहीं होता, बल्कि उसे शान्ति मिलती है। जो भी उपाय उसे पाने के लिए मनुष्य करता है, वे कभी व्यर्थ नहीं होते। इसके लिए उसे पश्चाताप करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। प्रयत्नपूर्वक की गई इस कमाई को न तो कोई छीन सकता है और न ही कोई चुरा सकता है। परिवारी जनों में इसका बटवारा भी नहीं किया जा सकता। यह एकमात्र ऐसी कमाई है, जो जन्म-जन्मान्तरों तक मनुष्य का साथ निभाती है। इस नामधन रूपी कमाई को कमा कर मनुष्य को कभी पछताना नहीं पड़ता।
चन्द्र प्रभा सूद
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