शनिवार, 5 जनवरी 2019

माँ

माँ तो आखिर माँ ही होती है। अपने बच्चे उसके लिए सदा ही छोटे और नासमझ रहते हैं। फिर बच्चे की आयु चाहे दो वर्ष की हो अथवा पचास वर्ष की।वह इस परिवर्तन को समझ ही नहीं पाती कि अब उसका बच्चा बड़ा हो गया है। वह तो जीवन के अन्त तक उसकी छोटी-सी परेशानी में उसी तरह तड़प जाती है, जैसे उसके बचपन में वह बेहाल हो जाती थी। वह उसे अपने जीवन की अन्तिम घड़ी तक, अपने आँचल की शीतल छाया देते रहना चाहती है।
          जब माँ बच्चे को छोड़कर दूर देश, परलोक चली जाती है, तब माँ कभी वापिस नहीं आती। उस समय उसे माँ के चले जाने का पता चलता है कि उसने अपने जीवन का एक अनमोल खजाना खो दिया है। तब उसे पश्चाताप होता है कि काश, माँ के जीवित रहते वह उसके प्रति असावधान कैसे हो गया था? उसने उसकी सुध क्यों नहीं ली?
        दो साल की आयु में जब बेटा बोलना और समझना शुरू करता है, तब यदि उसे घर में माँ न दिखाई दे, तो वह रोने लगता है और पुकारते हुए कहता है, "मम्मा कहाँ हो? कोई मेरी को बुला दो, मैं मम्मा को देखना चाहता हूँ। मम्मा, तुम कहाँ चली गयी हो?"
       चार  साल की आयु में जब वह बच्चा स्कूल जाने लगता है, तब कहता है, "मम्मी कहाँ हो? अब मैं स्कूल जाऊँ?" अच्छा बॉय-बॉय। मुझे स्कूल में आपकी बहुत याद आती है। घर आने के बाद वह माँ घर में या अपने सामने न देखकर रोता है। कुछ खाने के लिए दिया जाए तो नहीं खाता। बस माँ की गोद में उसे शान्ति मिलती है।
        आठ साल की उम्र तक वह समझदार हो जाता है। माँ को प्यार से कहता है, "मम्मा, आई लव यू, आज टिफिन में क्या दे रही हो? मम्मा स्कूल में बहुत होम वर्क मिला है।" यानी अपनी माँ को फरमाइशें करने लगता है और स्कूल की, अपने साथियों की ऊसर शिकायतें भी करता है।
        बारह वर्ष की आयु में यदि माँ घर पर न दिखे, तो पाप से पूछता है, "पापा, मम्मा कहाँ है? स्कूल से आते ही मम्मी नहीं दिखती, तो अच्छा नहीं लगता।" यानी अपनी माँ को देखे बिना वह उदास हो जाता है।
         किशोरावस्था यानी चौदह वर्ष की आयु में वह बेटा बड़ा होने लगता है। वह अपनी माँ से मित्रवत व्यवहार करने लगता है। उस समय अपनी माँ से कहता है, "मम्मी आप पास बैठो, मुझे आपसे बहुत सारी बातें करनी हैं।"
         युवावस्था के आरम्भ अर्थात अठारह वर्ष की आयु तक पहुँचते पहुँचते वह स्वयं को बहुत बड़ा समझने लगता है। उसे अब लगने लगता है कि वह कुछ भी कर सकता है और कहीं भी जा सकता है। इसलिए झल्लाते हुए अपनी माँ से कह देता है, "ओफ्फो मम्मी आप समझते नहीं हो, मुझे आज पार्टी में जाना है। मेरे सारे दोस्त आएँगे। यदि मैं नहीं जाऊँगा तो वे क्या सोचेंगे? आप पापा से कह दो, आज मुझे पार्टी में जाने दें।"
           कॉलेज में पड़ता हुआ बाईस साल का नवयुवक अपने आपको बड़ा तीसमारखाँ समझने लगता है। वह अपनी माँ हिदायतें देता हुआ कहता है, "क्या माँ? आज जमाना बदल रहा है, आपको कुछ पता भी है? आप कुछ समझना ही नहीं चाहते।"
         वह भूल जाता है कि इसी माँ ने उसे पल-पोसकर बड़ा किया है। उसे दुनिया की समझ उससे अधिक ही होती है।
         पच्चीस साल का बच्चा जब नौकरी करने लगता है, तब माता-पिता का समझाना उसे अपनी आजादी में खलल डालना लगता है। वह बड़ा होकर, अपने पैरों पर खड़ा होकर अब वह कमाने लगा है। वह सोचता है, "मैं अब दूध पीता बच्चा तो नहीं रह गया। जब देखो माता-पिता मुझे नसीहतें देते रहते हैं।"
          विवाह के पश्चात अठाईस वर्ष की आयु में वह माँ को अपनी पत्नी के साथ सामञ्जस्य बिठाने के लिए कहता है, "माँ, वह मेरी पत्नी है, आप कुछ तो समझा करो, अब अपनी मानसिकता को बदल डालो।"
          अपनी गृहस्थी सम्हालता हुआ तीस वर्ष का युवा अपनी माँ को समझता है, "माँ, मेरी पत्नी भी माँ है, उसे बच्चों को और घर को सम्भालना आता है। उसकी हर बात में मीनमेख निकलना अब छोड़ दो बस।"
          इस अपमान के पश्चात माँ किनारे हो जाती है। बेटा भी अपनी माँ को कभी नहीं पूछता। माँ कब अधेड़ावस्था से वृद्धावस्था में पहुँच गई, उसे पता ही नहीं चलता। माँ तो आज भी वही हैं, बस उसकी उम्र के साथ-साथ बस उसके बच्चों के अन्दाज़ बदलते रहते हैं।
         बेटा जब स्वयं पचास वर्ष का हो जाता है, तब अचानक माँ को चुप देखकर वह पूछ बैठता है, "माँ, माँ चुप क्यों हो? बोलो न।" पर माँ नहीं बोलती क्योंकि वह खामोश हो जाती है। यानी इस दुनिया से विदा लेकर दूसरे देश चली जाती है।
          कुछ अनकही और कुछ अनसुनी बातें बताने या कहने के लिए, हमारी यह ज़िन्दगी भी एक दिन बीत जाती है। अपनी माँ का सदा आदर और सत्कार करना चाहिए। उसे समझने का प्रयास करना चाहिए। यदि उसका कहा हुआ कुछ न भी पसन्द आए तो उसे अनदेखा कर देना चाहिए। कुछ अनमोल वक्त उसके साथ व्यतीत करना चाहिए। यह समय बड़ा निर्मोही है, किसी की भी प्रतीक्षा नहीं करता। हमारे न चाहने पर भी यह समय बस गुज़र जाता है। यह माँ है जो चले जाने के बाद फिर कभी वापिस लौटकर नहीं आती। बस उसकी यादें शेष रह जाती हैं।
चन्द्र प्रभा सूद
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