मंगलवार, 29 जनवरी 2019

सत्य बोलना

सदा सत्य बोलना चाहिए, ऐसा कहकर शास्त्र हमें अनुशासित करते हैं। बच्चों को बचपन से ही घर और विद्यालय में भी सत्य बोलने के संस्कार दिए जाते हैं। उन्हें यही समझाया जाता है कि सदा सच बोलना चाहिए, झूठ नहीं। जो बच्चे झूठ बोलते रहते हैं, उन्हें अपने माता-पिता और अध्यापकों की डाँट-फटकार सुननी ही पड़ती है। किसी बच्चे को झूठ बोलता देख, उसके अन्य साथी बच्चों को उसे चिढ़ाने का अवसर मिल जाता है। आज हम इसी विषय का विश्लेषण करेंगे।
             सत्यमेव जयते नानृतम्
अर्थात् सत्य की हमेशा जीत होती है झूठ की नहीं, कहकर शास्त्र सत्य बोलने का अनुमोदन करते हैं।
उपनिषद भी कहती है -
                सत्यं वद धर्मं चर
अर्थात् सत्य बोलो और धर्म का पालन करो।
          सच बोलने वाला तो सच बोल देगा। अब प्रश्न यह उठता है कि क्या सत्य सुनने के लिए कोई तैयार भी होता है? अथवा यह एक कथन मात्र ही बनकर रह जाता है? इस सत्य को बोलने के चक्कर में क्या कुछ नहीं घट जाता?
          बहुत समय पूर्व एक कथा पढ़ी थी। एक राजा को स्वप्न आया कि उसके सारे दाँत गिर गए हैं। फिर क्या था? राजा ने प्रात:काल विद्वत सभा बुलाई। उन विद्वानों के समक्ष रात के स्वप्न वाली घटना रखी और उसका अर्थ बताने के लिए कहा। सोच-विचार करने के पश्चात एक विद्वान ने कहा, 'महाराज, आपके सभी भाई-बन्धु आपसे पहले मृत्यु को प्राप्त होंगे।"
         यह कड़वा सच सुनकर राजा को क्रोध आ गया और उस विद्वान को कारागार में डालने का आदेश दे दिया। फिर एक अन्य विद्वान ने उस स्वप्न का अर्थ इस प्रकार बताया, "महाराज, आप दीर्घायु हैं। आपकी आयु अपने बन्धु-बान्धवों में सबसे अधिक है।"
          यह सुनकर राजा ने इस विद्वान को उपहार दिए। कहने का तात्पर्य यही है कि सच बोलने वाले को सजा मिली और घुमाकर, चाशनी लपेटकर वही बात कहने पर उपहार मिलता है। निम्न श्लोक में इसी भाव को प्रकट किया गया है-
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् ,न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। प्रियं  च  नानृतं  ब्रूयात् , एष  धर्मः  सनातन: ॥
अर्थात् सत्य बोलना चाहिए, प्रिय बोलना चाहिए, अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। प्रिय असत्य नहीं बोलना चाहिए, यही सनातन धर्म है।
          इस श्लोक का यही तात्पर्य है कि सत्य तो बोलना चाहिए पर प्रिय सत्य बोलना चाहिए। अप्रिय लगने वाला सत्य नहीं बोलना चाहिए। और इसी तरह प्रिय लगने वाला झूठ भी नहीं बोलना चाहिए। यहाँ एक बात स्पष्ट करना चाहती हूँ कि सत्य तो सदैव कड़वा होता है। इसीलिए सत्य बोलने वाले लोग किसी को भी अच्छे नहीं लगते। हर व्यक्ति चाहता है कि सब लोग उसके समक्ष सत्य बोलें, वह चाहे मिटना ही असत्य बोले। आज समय यह आ गया है कि न कोई सच बोलना चाहता है और न ही कोई सच सुनना चाहता है। समस्या यहाँ यह आती है कि मनुष्य स्वयं हर छोटी-बड़ी बात के लिए असत्य का सहारा लेता रहता है। जब उसका झूठ पकड़ा जाता है, तब वह बगलें झाँकने लगता है, झूठे-सच्चे बहाने गढ़ने लगता है।
           सत्य को कितने भी पर्दों में क्यों न छुपाकर रख दिया जाए, एक-न-एक दिन वह प्रकट हो ही जाता है। मनीषी कहते हैं कि 'मनसा वाचा कर्मणा' यानी मन, वचन और कर्म से सत्य बोलना चाहिए। जो विचार मन में हो वही वाणी में भी होने चाहिए और उसी के अनुरूप ही मनुष्य का व्यवहार भी होना चाहिए। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मन, वचन और कर्म से अलग रहने वाले पूर्णरूपेण सत्य का आचरण नहीं कर सकते।
        सत्य का प्रयोग अपनी सुविधा से नहीं किया जा सकता। जब हमें कुछ प्राप्ति होने की सम्भावना हो तो असत्य का सहारा ले लिया जाए और फिर भी हम समाज में सत्यवादी के नाम से ही जाने जाएँ। यह दोहरा चरित्र नहीं चल सकता। इससे किसी को अन्तर पड़े या न पड़े, परन्तु अपनी अन्तरात्मा तो धिक्कारती है। उससे कुछ भी नहीं छिपा रह सकता। वह हमारे सत्य अथवा असत्य कर्मों की साक्षी रहती है। यदि वास्तव में हम सच्चे बने रहना चाहते हैं, तो दुनिया क्या कहेगी के विषय में सोचना छोड़ना होगा। केवल स्वयं की सन्तुष्टि की परवाह करनी होगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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