बुधवार, 2 जनवरी 2019

बेटी का सम्पत्ति में अधिकार

पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री को हर स्थान पर दोयम दर्जे पर ही रखा जाता है। पिता की लाडली और नाजों से पाली हुई पुत्री को उसकी सम्पत्ति में कोई  अधिकार नहीं दिया जाता। अधिकांशतः पुत्र को ही यह धन-सम्पत्ति उत्तराधिकार में दी जाती है। बेटी को न जाने क्यों उस अधिकार से वञ्चित कर दिया जाता है। समझ नहीं आता कि बेटा हो अथवा बेटी, जब दोनों ही एक माता-पिता की सन्तान हैं, तो फिर यह भेदभाव क्यों किया जाता है? बेटी शादी करके दूसरे घर के लिए विदा कर दी जाती है तो क्या उसका सम्बन्ध अपने माता-पिता या शेष परिवारी जनों से समाप्त हो जाता है? ये सब विचारणीय विषय हैं।
       भारत में 1956 तक यह कानून लागू था, जिसके अनुसार पैतृक सम्पत्ति पर केवल पुत्र को ही उत्तराधिकारी बनाया जाता था। बेटी की उसमें कोई साझेदारी नहीं होती थी। अपवाद स्वरूप उन बेटियों को उत्तराधिकार के रूप में सम्पत्ति मिलती थी, जिनका कोई भाई नहीं होता था। तब वह सम्पत्ति बेटियों में बाँट दी जाती थी।
          भारतीय संविधान में लिंग के आधार पर भेदभाव करना कानून अपराध है। अतः सन् 2005 में संविधान में एक नया संशोधन किया गया। नए कानून के अनुसार बेटियों और बेटों दोनों को समान मानते हुए, कानूनी तौर पर पिता की सम्पत्ति में दोनों के लिए बराबरी, साझेदारी और हिस्सेदारी का प्रावधान रखा गया था।
          बहुत दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि कानून बनने और सामाजिक तौर पर उसे लागू करने की दिशा में आज तक कहीं कोई पहल नहीं की गई। इस कानून की अवज्ञा करने पर सजा का भी कोई प्रावधान नहीं रखा गया। इसलिए सब कुछ पारम्परिक ढर्रे के अनुसार ही चलता जा रहा है। यही कारण है कि बेटियाँ आज भी अपनी पैतृक सम्पत्ति प्राप्ति के अपने अधिकार से वञ्चित हैं। बहुत कम माता-पिता हैं, जो अपनी बेटियों को स्वेच्छा से सम्पत्ति में हिस्सा देते हैं। यदि बेटियाँ अपने अधिकार के लिए पिता और भाई के खिलाफ कोर्ट में मुक़दमा लड़ें, तभी वे उसे प्राप्त कर सकती है। उस स्थिति में उनका मायके से सम्बन्ध विच्छेद हो जाता है।
         हमारी भरतीय संस्कृति के अनुसार संस्कार ही कुछ ऐसे हैं कि प्रायः बहनें या बेटियाँ स्वेच्छा से अपना हक छोड़ देती हैं। चाहे वे स्वयं दुख और परेशानी में क्यों न जी रही हों। आर्थिक विपत्ति के समय, पति के व्यभिचारी, अनैतिक और दुराचारी होने के कारण या तलाक लेकर अलग रहने की स्थिति में भी प्रायः उन्हें अपने पिता और भाई से सहायता नहीं मिलती।
     विवाहोपरन्त पिता का घर छोड़कर वह पति के घर आती है। लोग कहते हैं कि बेटी की शादी कर दी है, अब उसका ससुराल की सम्पत्ति पर हक है। इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि उसे न मायके से सम्पत्ति मिलती है और न ही ससुराल से। कुछ लोग यह भी कहते हैं कि यदि उसे मायके की सम्पत्ति में हक दे दिया जाएगा, तो उसके पास मायके और ससुराल दोनों की सम्पत्तियाँ हो जाएँगी। इसके विपरीत बेटे के पास एक ही तरफ की सम्पत्ति रह जाएगी। पर वे भूल जाते हैं कि जो बहू उनके घर आएगी, वह भी तो अपना भाग या हिस्सा लेकर ही आएगी। इस तरह दोनों को अपना अधिकार मिलने से कोई भी पक्ष घाटे में नहीं रहेगा।
            आज स्थिति यह है कि विवाह में मिले कुछ उपहार, कुछ कपडे, कुछ गहने या कुछ रुपये ही मात्र स्त्री की पूँजी होते हैं। शायद उनमें से कुछ से ये भी लालची लोगों द्वारा छीन लिए जाते हैं। इससे भी अधिक स्थिति तब कष्टदायक होती है, जब पढ़ी-लिखी, नौकरी करती हुई स्त्री की कमाई को भी उसका पति या उसके ससुराल वाले छीन लेते हैं। इस प्रकार स्त्री को आर्थिक और सामाजिक आधार पर कमजोर रखने की साजिश युगों से रची जाती रही है। स्त्री की ऐसी स्थिति को जानते हुए ही पति नामक पुरुष उसका शोषण करने में अपनी सारी ऊर्जा लगा देता है। इसीलिए कुछ स्त्रियाँ घर खर्च से मिले पैसे में से कुछ धन बचाकर छिपा देती हैं। यदि उसके पास सम्पत्ति हो, अपना पैसा हो तो वह भी समाज में शान से सिर उठाकर चल सकती है और पति के घर में भी सम्मानपूर्वक रह सकती है।
           समय धीरे-धीरे परिवर्तित हो रहा है। आज माता-पिता अपनी बेटी को पढ़ा-लिखाकर अपने पैरों पर खड़ा देखना चाहते हैं। ताकि उसे अपने खर्चों के लिए किसी का मुँह न देखना पड़े। यदि वे उसे उसका दयाद्य यानी सम्पत्ति में उसे अधिकार भी उसे दे दें, तो उसके लिए स्थितियाँ बहुत ही अनुकूल हो जाएँगी। उसे किसी के सामने हाथ नहीं फैलाना पड़ेगा। वह स्वयं को असहाय नहीं समझेगी।
चन्द्र प्रभा सूद
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