शुक्रवार, 18 जनवरी 2019

सिंगल चाइल्ड

आज कॉम्पिटीशन के दौर में युवा अपनी नौकरी एवं व्यवसाय में इतना अधिक व्यस्त हो गए हैं कि उन्हें अपने लिए भी समय नहीं मिल पाता। प्रात: जाने के समय तो वही होता है, परन्तु घर लौटने का उनका कोई समय नहीं होता। अपने भाई-बन्धुओं से मिलने के लिए भी वे समय नहीं निकाल पाते। इससे भी बढ़कर सामाजिक कार्यों में सम्मिलित होना भी उनके लिए कठिन होता जा रहा है। इस तरह वे समाज से कटते जा रहे हैं।
          चाहे युवक हों या युवतियाँ अपने कैरियर को लेकर सभी बहुत सावधान रहते हैं। इसलिए घर से दूर, अपने देश या विदेश में कहीं भी जाना उनकी मजबूरी बनती जा रही है। संयुक्त परिवार के स्थान पर एकल परिवारों के बढ़ने का यह भी एक प्रमुख कारण है। शायद यही कारण है कि आज भारत में सिंगल चाइल्ड वाले परिवारों की संख्या तेजी से बढ़ती जा रही है। कुछ युवा कहते हैं कि उनके पास बच्चे पैदा करने का समय नहीं है। यानी वे एक भी बच्चा पैदा नहीं करना चाहते। इन परिवारों को न तो अपने बुजुर्गों का साथ मिल पा रहा है और न ही अपने भाई-बहनों का। घर-परिवार से दूर रहते ये युवा अपने पारिवारिक सुख-दुख में चाहते हुए भी शामिल नहीं हो पाते, इस बात का उन्हें बहुत दुख रहता है।
         कहाँ घर बच्चों की किलकारियों से गूँजता रहता था, वहीं आज शान्ति पसरी रहती है। एक बच्चे का यह चलन हमारी पूरी पारिवारिक संस्था पर ही प्रश्र चिन्ह लगा रहा है। इस तरह भाई-बहन का रिश्ता भी समाप्त होता जा रहा है। यदि परिवार में इकलौता बेटा है तो उसकी आने वाली पीढ़ी चाचा-चाची, ताऊ-ताई और बुआ-फूफा आदि के रिश्तों से हमेशा के लिए अनजान रह जाऐंगी। इसी तरह यदि इकलौती सन्तान बेटी होती है तो उसकी आने वाली पीढ़ी को मामा-मामी और मौसी-मौसा आदि का रिश्ता नहीं मिलेगा। सिंगल चाइल्ड की यह सोच सामाजिक तानेबाने के लिए घातक सिद्ध हो रही है।
          सबसे बड़ी समस्या यह है कि एक पूरी पीढ़ी  बचपन से ही एकाकीपन और असामाजिकता का शिकार होती जा रही है। इसके चलते बच्चों का सम्पूर्ण व्यक्तित्व ही प्रभावित हो रहा है। ये बच्चे आत्मकेन्द्रित और आक्रामक बनते जा रहे है। इन  इकलौते बच्चों को किसी के साथ अपना बिस्तर, खिलौने, पुस्तकें आदि साझा करना आता ही नहीं है। इन बच्चों को अपने बराबर के बच्चों के साथ सामञ्जस्य स्थापित करना भी नहीं आता। घर में यदि कोई मेहमान आ जाए तो ये परेशान हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि उनकी प्राइवेसी में दखल दिया जा रहा है। बार-बार पूछते हैं कि वह अतिथि कब जाएगा।
       अपने माता-पिता से आवश्यकता से अधिक प्यार-दुलार पाकर ये बच्चे बिगड़ते जा रहे हैं। कहीं बच्चा नाराज न हो जाए, कहीं कुछ कर न बैठे, इस कारण माता-पिता उनकी हर जायज-नाजायज माँग को मान लेते हैं। वे सदा उनकी खुशी में खुश रहना चाहते हैं। स्वयं को इतना अधिक महत्त्व मिलते देखकर ये बच्चे दिन-प्रतिदिन जिद्दी और घमण्डी बनते जा रहे हैं। ये अपने सामने किसी को कुछ समझते ही नहीं हैं। ये सोचते हैं कि जो उन्होंने कहा दिया, बस वही पत्थर की लकीर है। उनकी बात को काटने का किसी को अधिकार नहीं है, फिर वे चाहे उनके माता-पिता ही क्यों न हों।
          इकलौते बच्चों का व्यवहार और उनकी कार्यशैली उन बच्चों से बिल्कुल अलग होती है, जो अपने हमउम्र भाई-बहनों के साथ बड़े होते हैं। भाई-बहनों के साथ रहते हुए उन्हें अपनी वस्तुएँ साझा करनी आ जाती हैं। उन्हें परस्पर सामञ्जस्य स्थापित करना आ जाता है। वे छोटों और बड़ों के साथ कुशलता से व्यवहार कर लेते हैं। बड़े भाई या बहन को देखकर, बिनकहे ही वे बहुत कुछ सीख जाते हैं। लड़ते-झगड़ते वे कब बड़े हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता।
         अपने कैरियर के प्रति सावधान आज की युवापीढ़ी अकेले बच्चे के दर्द से अनजान बनी हुई हैं। अकेले बच्चे सारा दिन पुस्तकें पढ़कर, टी. वी.देखकर, वीडियोगेम खेलकर अथवा मोबाइल से अपना मन बहलाने का असफ़ल प्रयास करते हैं। माता-पिता के पास समय न होने के कारण उनका साथ भी उन्हें सीमित ही मिल पाता है और फिर बच्चे कितनी देर तक उनके साथ भी बात कर सकते हैं। ऐसे बच्चे जब समझने लायक हो जाते हैं, तब उन्हें अकेलापन बहुत अखरता है। अपने माता-पिता से बच्चे हर समस्या को नहीं डिसकस कर सकते। वे अपने मन की बात या कोई समस्या किसके साथ साझा करें, उन्हें यह समझ नहीं आता।
          नौकरों के हाथ में पलने वाले बच्चों की समस्याएँ वास्तव में विचारणीय हैं। आज के युवा मस्त-पिता को भी इस विषय पर अवश्य मनन करना चाहिए।
चन्द्र प्रभा सूद
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