गुरुवार, 3 जनवरी 2019

सफलता के मायने

सफलता के मायने हर आयु के अनुसार बदलते रहते हैं। बचपन से लेकर वृद्धावस्था तक हम अपनी कमजोरियों को नियन्त्रित करने का प्रयास करते रहते हैं। उसमें हम सफल हो पाते हैं अथवा नही, यह हमारी अपनी इच्छाशक्ति पर निर्भर करता है। यह आवश्यक नहीं कि प्रथम प्रयास में ही हम अपनी सफलता के झण्डे गाड़ दें। कभी-कभी बहुत बार यत्न करने पर भी निराशा ही हाथ लगती है। कोई बात नहीं, इस स्थिति में थक-हारकर बैठ जाने जैसा कुछ भी नहीं है।
       छोटे बच्चे स्वयं पर नियन्त्रण न रख पाने के कारण बार-बार अपने कपड़ों में ही सू सू कर देते हैं। इसी तरह रात को बिस्तर भी गीला कर देते हैं। अपनी चार वर्ष की आयु तक आते आते वे अपने कपड़ों को सूखा रखने में यानी उन्हें गीला न करने में सफल हो जाते हैं। सच्चाई यह है कि उस आयु में पहुँचकर बच्चे अपने कपड़ों को गीला नहीं करते। यानी यही उनके लिए उस आयु की सबसे बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।
        इसके बाद आगे बढ़ते हैं, उम्र के उस पड़ाव पर जब बच्चे की आयु आठ वर्ष हो जाती है। उस उम्र में वह थोड़ा-सा बड़ा हो जाता है और कुछ समझदार हो जाता है। उसे अपने घर वापिस आने वाले रास्ते की पहचान हो जाती है। तब वह अपने घर से बाहर, आस-पास ही कुछ समय के लिए दोस्तों के साथ खेलने चला जाता है। माता-पिता उसे ऐसा करने की अनुमति दे देते हैं। उसके लिए यही सबसे बड़ा साहसिक कदम है कि वह अकेला अपने मित्रों के साथ पार्क आदि किसी स्थान खेल रहा है।
        जब बच्चे की आयु बारह वर्ष की हो जाती है, तब उस उम्र में उसकी सफलता यही होती है कि वह अपने अच्छे मित्र बना सकता है। दूसरे शब्दों में कहें तो बच्चे को अन्य बच्चों के साथ मिल-जुलकर रहना आ जाता है। वह अपने दोस्तों के साथ अपनी वस्तुएँ साझा करने लगता है, खेलता है और अपने मन की बात उनसे करने लगता है।
         युवावस्था यानी अठ्ठारह वर्ष की आयु में नवयुवा यदि मदिरा और सिगरेट आदि व्यसनों से स्वयं को दूर रख पाता है, तो यह उसकी बहुत बड़ी सफलता कहलाती है। इसका अर्थ है कि इस आयु तक आते आते हर युवा को समझदार हो जाना चाहिए। उसे अपना भला-बुरा पहचानना आ जाना चाहिए अन्यथा कुसंगति में पड़कर उसे आयु पर्यन्त पछताना पड़ता है। यदि वह सन्मार्ग पर चलता रहता है, तो विद्याध्ययन करके योग्य बनता है। फिर पच्चीस वर्ष की आयु तक वह नौकरी पाकर अपने जीवन में सफलता प्राप्त करता है। इस तरह सफल व्यक्ति बनकर तीस वर्ष वर्ष की उम्र तक वह एक पारिवारिक व्यक्ति बन जाता है। तब उसकी सफलता उसके दायित्वों का पूर्ण होना होता है। उनमें किसी प्रकार की कोताही मान्य नहीं की जा सकती।
        तत्पश्चात पैंतीस वर्ष की उम्र तक मनुष्य दुनिया की धूप-छाँव को समझने लगता है। अपने भविष्य की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए धन का संचय करना सीख लेता है। यही इस उम्र की सफलता होती है। यदि वह धन का दुरुपयोग करता है तो बच्चों को सेटल करने, उनकी शादी करने जैसे दायित्वों को निभाने में वह कठिनाई का अनुभव करेगा। फिर पैंतालीस वर्ष की आयु तक अपनी युवावस्था को बरकरार रखना अपने आप में बहुत बड़ी सफलता है। इसी कड़ी में पचपन वर्ष तक पहुँचते-पहुँचते मनुष्य यदि अपने हिस्से की सारी जिम्मेदारियाँ पूरी करने में सक्षम हो जाता है, तब वह एक सफल मनुष्य की श्रेणी में गिना जाता है।
        रिटायरमेंट के बाद पैंसठ वर्ष की आयु में यदि मनुष्य स्वस्थ रहता है तो यह उसकी जीत है। इससे ज्ञात होता है कि उसका आहार, विहार और विचार यानी उसकी जीवनशैली सन्तुलित रही होगी। सत्तर वर्ष की आयु में भी यदि कोई मनुष्य आत्मनिर्भर रहता है यानी किसी पर बोझ नहीं बनता, तो इससे बढ़कर कोई और सफलता उसके लिए हो ही नहीं सकती। यदि वह पिचहत्तर वर्ष की आयु में अपने पुराने मित्रों से रिश्ता कायम रख सके तो मानो उसने जिन्दगी की जग में विजय प्राप्त कर ली है। आत्मनिर्भर रहना और अपने पुराने मित्रों के सम्पर्क में रहने से मनुष्य का समय अच्छे से बीत जाता है। तब उसे अकेलेपन का दंश नहीं झेलना पड़ता।
        इस आयु से जीवन चक्र है फिर से घूमकर लौटकर वहीं आ जाता है, जहाँ से उसका आरम्भ हुआ था। यानी अस्सी वर्ष की आयु की सफलता यही है कि मनुष्य को अपने घर तक वापिस आने का रास्ता ज्ञात है। उसे दुनिया की भीड़ में खो जाने का भय नहीं है। यदि पिचासी वर्ष की आयु में वह पुनः अपने वस्त्रों को गिला नहीं करता, तो उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है।
         इस लेख को लिखने का उद्देश्य मात्र इतना है कि अंततः यही जीवन का परम सत्य है। इसे जान लें या समझ लें तो जीवन यात्रा सरल हो जाती है। किसी से शिकायत करने की आवश्यकता नहीं रह जाती। अन्यथा सफलता और असफलता का ज्ञान नहीं हो सकता।
चन्द्र प्रभा सूद
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